भीष्म साहनी विशेषांक

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भीष्म साहनी विशेषांक

अनुक्रम

संपादकीय: सांप्रदायिक फ़ासीवाद के ‘अच्छे दिनों’ में भीष्म साहनी / 3

नज़रिया

ख़त्म नहीं होती साहित्य की सार्थकता: भीष्म साहनी / 7

अंतरंग

भीष्म: मेरे पति और लेखक: शीला साहनी / 11

हम सबके भीष्म

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भीष्म साहनी: कृष्णा सोबती / 17

बहुरूपियेपन से बरी बौद्धिक: कृष्णा सोबती / 22

होगा कोई ऐसा भी कि भीष्म को न जाने?:

नामवर सिंह / 26

एक दरवेश की दास्तान: विजयमोहन सिंह / 28

जीवन का लेखन: वियजमोहन सिंह / 31

प्रगतिशील आंदोलन और भीष्म साहनी:

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह / 34

एक दिन की बात: कुलदीप सलिल / 42

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एक संस्मरण: गिरिराज किशोर / 45

रचना संसार और मेरे सबक़: नमिता सिंह / 48

एक निजी आख्यान: पंकज बिष्ट / 57

आत्मा में कहीं गहरे धंसी कीलें: बंटवारा, दंगे, शरणार्थी: संजीव / 65

मेरे प्रिय कथाकार: लाल्टू / 69

साधारण जीवन के असाधारण साहित्यकार: विनोद दास / 75

सात कहानियों का मंचन: देवेंद्र राज अंकुर / 80

प्प्प्

भीष्म साहनी के उपन्यास: शिवकुमार मिश्र / 87

मय्यादास की माड़ी का कथाकार: विश्वनाथ त्रिपाठी / 92

सादगी का सौंदर्यशास्त्रा: श्याम कश्यप / 105

जीवन और टेक्स्ट की अभिन्नता: केवल धीर / 115

मीडिया का तमस और भीष्म साहनी: मुकेश कुमार / 123

तमस: विभाजन के मंच पर रचा गया मानवीय रिश्तों का अंधेरा: बसंत त्रिपाठी / 127

झरोखे में शहर: सुमनिका सेठी / 134

उड़ान की तैयारी: रश्मि रावत / 141

युग संवेदना का साक्ष्य: वैभव सिंह / 150

भाषा के दबाव: केवल गोस्वामी / 157

कहानियां और पंजाबियत: हरियश राय / 161

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वाङ्चू की पीड़ा का सार: रवीन्द्र त्रिपाठी / 171

नाटकों का रंगशिल्प: प्रदीप कुमार / 174

हानूश: करिश्मा बनाम ईजाद: सुल्तान अहमद / 183

भीष्म साहनी के कबीर: कँवल भारती / 189

भीष्म साहनी, तमस और हिंदी सिनेमा: जवरीमल्ल पारख / 195

दस्तावेज़

रंगमंचीय प्रस्तुतियों की समीक्षाएं: जयदेव तनेजा / 215

विचारधारा, साहित्य और लेखक: भीष्म साहनी के कुछ विचार: संकलन: श्याम सुशील / 221

 

 

संपादकीय

सांप्रदायिक फ़ासीवाद के ‘अच्छे दिनों’ में भीष्म साहनी

भीष्म साहनी का जन्मशती वर्ष ऐसे समय में पड़ा है जब सांप्रदायिक फ़ासीवाद के ‘अच्छे दिन’ आये हुए हैं। जिन ताक़तों के खि़लाफ़ लड़ने में भीष्म जी ने अपना पूरा रचनात्मक जीवन समर्पित किया, वे सत्ता-मद में चूर हैं और जिनके पक्ष में वे आजीवन अथक संघर्ष करते रहे, वे हाशिये पर हैं। उग्र पूंजीवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का निर्लज्ज गठजोड़ केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ है। एक ओर संचय और मुनाफ़े की नवउदारवादी भूख को तृप्त करने के लिए मज़दूरों और किसानों को मिले अधिकार छीनने की ज़बर्दस्त तैयारी है, तो दूसरी ओर हिंदुत्व को इस देश की आधिकारिक विचारधारा बना देने के लिए अल्पसंख्यकों, तर्क और विवेक के पक्षधरों, बहुलता और विविधता के पैरोकारों पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं। एक ओर जल-जंगल-ज़मीन, ज़मीन के अंदर गड़ी अकूत संपदा और मेहनतकशों की मांसपेशियों में बसी अपार श्रम-शक्ति पर इनकी लोलुप निगाह है और उसे मुफ़्त या औने-पौने दामों में हासिल कर लेने की सारी हिकमतों को ये अंजाम दे रहे हैं, तो दूसरी ओर इन हिकमतों की ओर से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए सांप्रदायिक तनाव को तीखा करते जाने और ऐसी हर सोच को नेस्तनाबूद कर देने की मुहिम में मुब्तिला हैं जो इनकी कोशिशों के आड़े आ सकती है। विद्यार्थी भारत का झूठा इतिहास पढ़ें और इतिहास की वैज्ञानिक समझ से वंचित रहें, शिक्षा आलोचनात्मक चेतना को प्रखर करने के बजाय कुंद करे, लेखकगण हर क़दम पर भावनाओं के आहत होने की फ़िक्र करते हुए यथास्थिति का पोषण करनेवाली कृतियां रचें, रामायण-महाभारत और पुराणों को इतिहास-ग्रंथ का दर्जा दिया जाये और गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ काµइसके सुनियोजित और बहुस्तरीय प्रयास ‘अच्छे दिनों’ का लाभ उठा रही शक्तियों की ओर से लगातार जारी हैं। कन्नड़ के विद्वान, वचन साहित्य के गहन अध्येता और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध विवेकवादी विचारक 78 वर्षीय प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या को इसी प्रयास की ताज़ा कड़ी के रूप में देखना चाहिए।

ऐसे समय में भीष्म साहनी का जन्मशती वर्ष सांप्रदायिक-जनविरोधी ताक़तों के खि़लाफ़ सजग संघर्ष की परंपरा को याद करने का एक उपयुक्त अवसर है। विडंबना देखिए कि भाजपा सरकार ने जिन 25 महापुरुषों की जन्मशती मनाने की घोषणा की है, उनमें भीष्म जी को भी शामिल किया है। अच्छा होµयद्यपि ऐसा होने की कोई संभावना नहीं हैµकि ये लोग जन्मशती वर्ष में भीष्म जी के सरोकारों को याद करें, याद करें कि सांप्रदायिक चेहरों को उन्होंने किस तरह बेनक़ाब किया था जिसके खि़लाफ़ तमस धारावाहिक के प्रसारण के समय आरएसएस-भाजपा को ज़बर्दस्त तरीक़े से उत्पात मचाना पड़ा, याद करें कि जिस ‘सहमत’ की गतिविधियों के साथ भीष्म जी सक्रियता से संबद्ध थे और जिसके वे संस्थापक अध्यक्ष थे, उसके एकाधिक आयोजनों का ज़ायका बिगाड़ने के लिए इन्हें किस तरह तोड़-फोड़ और गाली-गलौज का सहारा लेना पड़ा, याद करें कि भीष्म जी कम्युनिस्ट पार्टी, इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रहते हुए आजीवन जिन मूल्यों के पक्ष में लड़ते रहे उनके साथ इन ताक़तों का कैसा छत्तीस का रिश्ता रहा।

ज़ाहिर है, वे यह सब याद नहीं करेंगे। पर हमारे लिए भीष्म साहनी की जन्मशती इन सबको याद करने का अवसर भी है। उनके व्यक्तित्व और रचनाकर्म से इन मूल्यों को निकाल देना उन्हें सत्वहीन कर देना है। वह मोम का पुतला बनाने या शेर की खाल में भूसा भर देने के समान है।

भीष्म जी ने 16 वर्ष की उम्र से लिखना आरंभ किया और अपनी 87 साल की जिं़दगी में तमाम राजनीतिक-सांस्कृतिक सक्रियताओं के बीच विपुल परिमाण में लेखन किया। नौ कहानी-संग्रह, सात उपन्यास, छह नाटक, अनेक संस्मरण, आत्मकथा, वैचारिक-आलोचनात्मक लेख और अंग्रेज़ी में एक जीवनी (बड़े भाई बलराज साहनी की)। 1957 से 63 तक मॉस्को के विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर भी रहे और तोलस्तोय के उपन्यास पुनरुत्थान और उनकी कहानियों के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण किताबों का उन्होंने अनुवाद किया। उनका यह विराट रचना-संसार सरोकारी लेखन की पहचान का एक मानदंड है। वह मानदंड सिर्फ़ अपने सरोकारों के कारण नहीं है, इस बात का नमूना होने के कारण भी है कि सरोकार किस बारीक़ी के साथ कला में ढलते और उसे समृद्ध करते हैं। मेरी प्रिय कहानियां की भूमिका में भीष्म जी ने लिखा था: ‘लेखक यथार्थ का दामन नहीं छोड़ता, और साथ-ही-साथ उसका कायापलट भी करने लगता है, ताकि वह मात्रा घटना का ब्यौरा न रहकर कहानी बन जाये, कला की श्रेणी में आ जाये।’ नयी कहानी की चर्चा करते हुए प्रेमचंद के बारे में भीष्म जी ने जो कहा था, वह उनके अपने लेखन पर भी पूरी तरह लागू होता है और उसके साथ-साथ नयी कहानी के जिस भिन्न प्रस्थान को उन्होंने चिह्नित किया था, वह भी: ‘प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन, मेरी नज़र में, यह थी कि वे अपने भाग्य से जूझते व्यक्ति को समाज के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते थे। उनका साहित्य समाजोन्मुख था। मैं इसे सही और प्रेरणास्पद समझता था। इस दृष्टि से रचे गये साहित्य में पात्रा का व्यक्तित्व बहुआयामी बनकर हमारे सामने उभरता है। उसे मात्रा उसके व्यक्तिगत गुण-दोष के परिप्रेक्ष्य में देखना मुझे एकांगी लगता था। और प्रेमचंद की दृष्टि हमारे उस उथल-पुुथल वाले काल के अनुरूप भी थी जिससे हमारा देश उन दिनों गुज़र रहा था, और हमारा इतिहास एक बहुत बड़ी करवट ले रहा था।कृ नयी कहानी में पात्रा के व्यक्तिगत गुण-दोष पर, बल्कि उसकी आंतरिक भावनाओं-वृत्तियों पर फिर से ज़्यादा बल दिया जाने का आग्रह था। कम-से-कम मैं ऐसा ही समझता था, और इसमें ज़्यादा मतभेद की गुंजाइश नहीं थी। मनुष्य आर्थिक-सामाजिक दबावों की जकड़ में रहता है, बेशक, पर उसकी इच्छाशक्ति उस जकड़न में से निकलने के लिए भी छटपटाती है। उसके जीवन में उसकी इच्छाशक्ति की भी उतनी ही बड़ी भूमिका रहती है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।’ अपनी इसी समझ के कारण भीष्म साहनी एक ऐसे सर्जक के रूप में हमारे सामने आते हैं जिसकी रचनाशीलता एकायामी नहीं है।

उनके विभिन्न आयामों को समेटने में यह अंक कितना सफल रहा है, यह तो सुधी पाठक ही बता पायेंगे, पर कोशिश यही रही है कि उन्हें समग्रता में याद किया जाये। इसके लिए नये लेखों के साथ-साथ आवश्यकतानुसार कुछ पूर्वप्रकाशित लेख भी इस अंक में शामिल किये गये हैं। आशा है, नया पथ के पाठक-वर्ग को अपनी पत्रिका से जिस वैचारिक धार और सार-संचय की उम्मीद रहती है, उसे यह अंक एक हद तक पूरा कर पायेगा।

 

नया पथ परिवार दिवंगत डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल क़लाम, अब्दुल्ला हुसैन, बशर नवाज़, सरदार अंजुम, महेंद्र भल्ला, ललित शुक्ल, जगदीश चतुर्वेदी, गोपाल राय, वीरेन डंगवाल, और पोंगापंथियों के हाथों मारे गये प्रो. एम.एम. कलबुर्गी को श्रद्धासुमन अर्पित करता है।

 

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