संजीव कुमार
आज जब भाई गौरीनाथ की फ़ैसलाकुन धमकी के बाद यह टिप्पणी लिखने बैठा हूँ, मोदी को बिहार की जनता की ओर से करारा जवाब दिया जा चुका है. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की निर्लज्ज कोशिशों और विकास की हवाई बातों को उसने निर्णायक स्वर में नकार दिया है. फेसबुक पर जो चर्चाएँ चल रही हैं, उनमें से एक यह है कि अब आरएसएस से सम्बद्ध संस्था संस्कार भारती को अनुपम खेर के नेतृत्व में एक और ‘मार्च फॉर इंडिया’ आयोजित करना चाहिए. इस बार बिहार की जनता के ख़िलाफ़. ये बिहार की जनता है जो अपने वोट से भारत को बदनाम करने की साज़िश रच रही है. आख़िर मोदी के ख़िलाफ़ मत देने का मतलब भारत के ख़िलाफ़ मत प्रकट करना ही तो है! इसी तर्क पर 7 नवम्बर को खेर के नेतृत्व में एक जुलूस गाली-गलौज की भाषा में अपने सुसंस्कारों का प्रदर्शन करता हुआ दिल्ली के राजपथ पर निकला था. अब चूँकि बिहार की ईवीएम मशीनों से भी यही मोदी-विरोधी/भारत-विरोधी सन्देश बाहर आया है, इसलिए बिहारियों के ख़िलाफ़ एक रैली तो बनती है! भारत को बदनाम करने की कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब देना ही होगा. खेर साहब, इस नाचीज़ ने तो नारा भी तैयार कर रखा है: ‘इन बिहारवालों को, जूते मारो …. को!’ आपके साथ निकली अनुपम भीड़ ने जो नारे लगाए थे, उसमें ‘साहित्यकारों’ के साथ ‘सालों’ का तुक पूरा मिल नहीं रहा था. इस बार के नारे में ‘बिहारवालों’ के साथ तुकबंदी भी निर्दोष होगी!
कोई ठीक नहीं कि खेर और उनके साथी फेसबुक पर जारी मशवरों पर अमल भी कर बैठें. इनके दिमाग़ का कोई ठिकाना नहीं. इसका इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि साहित्य-कला-जगत को जिस बात पर गर्व होना चाहिए, उस पर इन्हें गुस्सा आता है और जिस बात पर गुस्सा आना चाहिए, उस पर गर्व होता है. आज हर लेखक-कलाकार के लिए यह गर्व का विषय होना चाहिए कि इस देश में अल्पसंख्यकों, तर्क और विवेक के पक्षधरों, बहुलता और विविधता के पैरोकारों पर लगातार बढ़ते हमलों के ख़िलाफ़ पहला ठोस क़दम साहित्यकारों ने उठाया. एक हिन्दी वाले के रूप में मुझे गर्व है कि मेरे उदय प्रकाश ने प्रो. कलबुर्गी की हत्या के चार दिन बाद ही अपना पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी और उसके दो हफ़्ते बाद यह सिलसिला बड़े पैमाने पर शुरू हुआ. फिर तो यह साहित्यकारों-कलाकारों से होता हुआ वैज्ञानिकों तक पहुंचा और आज अपने पुरस्कार और उपाधियाँ लौटाने वालों की संख्या 75 पार कर चुकी है. इन लोगों ने यह कभी नहीं कहा कि भारत असहिष्णु है, जैसा कि खेर समूह ने आरोप लगाया है. इससे उलट, इन्होने कहा कि यह देश सहिष्णु रहा है और है, बहुलता का सम्मान करना इसकी प्रकृति और पहचान है, और अब जो ताक़तें केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, वे दुर्भाग्यपूर्ण तरीक़े से इसे नष्ट कर देने पर आमादा हैं. इसीलिए नयनतारा सहगल ने अपने बयान का शीर्षक ही दिया, ‘दी अनमेकिंग ऑफ़ इंडिया’. पर इनके विरोधियों की वैचारिक दरिद्रता देखिये कि वे पुरस्कार-उपाधियाँ लौटाने का विरोध करते हुए इन्हीं की बात का पहला हिस्सा दुहरा रहे हैं. बस, उनका इसरार इतना है कि इस सहिष्णुता को खंड-खंड करने की कोशिशों की ओर से आँखें मूँद ली जाएँ. यानी भारत सहिष्णु है, उनके ऐसा कहने के पीछे एक छिपा हुआ अफ़सोस है. वह अफ़सोस ज़ाहिर हो जाता है जब खतरों की बात करने वालों को वाघा बॉर्डर के पार फेंक देने का नारा उछला जाता है और अगर खतरों की बात करने वाला कोई मुसलमान – मसलन, शाहरुख़ खान – हो तो उसकी तुलना हाफ़िज़ सईद से की जाती है. गरज़ कि अपने कहे को अगली ही लाइन में अनकहा कर देना, या सहिष्णुता की बात को पूरी कट्टरता के साथ कह कर अपनी बात को बेमानी कर देना इस समूह की खासियत है. इन्हें यह अहसास भी नहीं कि हिंसक होने का आरोप लगाने वाले को मार कर आप खुद को अहिंसक साबित नहीं कर सकते.
कहना मुश्किल है कि मूर्खता, धूर्तता और क्रूरता में से कौन सी चीज़ इन मोदी-रक्षकों में ज़्यादा है. संभवतः अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग तरह का अनुपात होगा. वह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए. पर यह निश्चित रूप से चिंताजनक है कि वे तर्क, जो इन तीनों चीज़ों में से किसी का भी प्रचंड प्रमाण हो सकते हैं, आज बौद्धिक विमर्श में एक पक्ष होने के लायक मान लिए गए हैं. ये कोई मामूली बात नहीं है कि टीवी चैनलों पर जब भी लेखकों-कलाकारों के विरोध-प्रदर्शन पर चर्चा हो, बौद्धिक रूप से ‘चैलेंज्ड’ संघ-प्रवक्ता या हिन्दुत्ववादी विशेषज्ञ बहस पैनल में अनिवार्यतः बैठे मिलते हैं, आपको उनके बार-बार दुहराए जाने वाले खोखले तर्कों को सुनना पड़ता है, एंकर अगर उन्हें ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम बराबर की अहमियत देता दिखाई पड़ता है, और-तो-और, अक्सर वह भी उन्हीं तर्कों की शरण लेता पाया जाता है. ‘आप तब, तब और तब कहाँ थे’, या ‘इन्होने तो पहले से ही मोदी जी के ख़िलाफ़ हस्ताक्षर अभियान चला रखा था, अब यह नया हथकंडा है’ – ये दो ऐसे तर्क हैं जो अपनी दरिद्रता के बावजूद सैंकड़ों बार दुहराए जा चुके हैं और इनके उत्तर को शोर-शराबे में दबा कर जीत का झंडा फहराने की मुद्रा हर बार देखी गयी है. यह दुर्योग ही रहा होगा कि मैंने जब-जब ऐसी बहस को सुना, ये पाया कि बुद्धू-बक्से में कोई पिद्दी प्रवक्ता उक्त तर्कों को अपमानजनक तरीक़े से दुहरा रहा है और सामने कोई महारथी उसके प्रश्नों की स्तरहीनता और शैली की आक्रामकता से असहज महसूस करता बैठा है. अब आप ही बताइये, एक कोई संगीत रागी नाम का व्यक्ति अगर घिसे-पिटे सवालों के साथ शेखर पाठक जैसे प्रख्यात घुमक्कड़ शोधार्थी पर हमले करता दिखाई दे, कोई अवनिजेश अवस्थी नामक सज्जन सईद मिर्ज़ा जैसे कलाकार को अपमानित करते हुए अनाप-शनाप बोलते नज़र आयें, तो कोई वजह है कि आप राष्ट्रीय टेलीविज़न पर चलने वाले विमर्श के ओछेपन से चिंतित न हों?
लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने हर समय सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है. जो लोग ‘तब कहाँ थे’ वाला प्रश्न कुछ इस अंदाज़ में पूछते हैं गोया बहुत मौलिक प्रश्न पूछ रहे हों, उन्हें अपने अनपढ़ होने के कारण साहित्य और कला की परम्परा का रत्ती भर ज्ञान नहीं है. रहा ये सवाल कि मुखालफ़त भले की हो, पर उस वक्त पुरस्कार क्यों नहीं लौटाये गए, तो यह सवाल इसलिए बेमानी है कि बड़े पैमाने पर पुरस्कार लौटाने की मुहीम पचास साल पहले भी चली होती तब भी यह सवाल पूछा जा सकता था, क्योंकि हर समय का कोई पूर्ववर्ती समय था और हर पूर्ववर्ती समय में कोई-न-कोई विरोध-योग्य प्रवृत्ति थी! लिहाज़ा, ‘पहले क्यों नहीं’ के हवाले से जो आरोप वैधता हासिल करता है, वह हर दौर में इस तरह की वैधता हासिल कर लेने की अपनी योग्यता के चलते ही किसी भी दौर के लिए वैध नहीं रह जाता. उसकी वैधता छद्म साबित होती है.
यह भी गौर करने की ज़रूरत है कि लेखकों-कलाकारों पर बोलियाँ कसने वाले किसी पिद्दी ने यह नहीं पूछा कि २००२ के गुजरात दंगे के समय आपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? आपातकाल, १९८४, कश्मीरी पंडितों का विस्थापन – यह सब उन्हें याद आया, २००२ याद नहीं आया. इसकी वजह है कि २००२ में भी पुरस्कार न लौटाए जाने के तथ्य से उनका यह निष्कर्ष ध्वस्त हो जाता है कि पुरस्कार लौटाने के पीछे दलगत राजनीति है. इसीलिए वे अपनी सुविधा से अतीत के त्रासद बिन्दुओं का चुनाव करते रहे और सवाल की पोल को आक्रामक मुद्राओं से ढंकने की कोशिश करते रहे.
इसी तरह इन मोदी-रक्षकों ने बार-बार रहस्योद्घाटन के अंदाज़ में यह भी दुहराया कि २०१४ के अप्रैल महीने में कई बुद्धिजीवियों ने मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की अपील जारी की थी और ये पुरस्कार लौटाने वाले ज़्यादातर लोग वही हैं. यानी ये तो पहले से ही मोदी-विरोधी हैं और अभी छोटी बातों को तूल देकर ये लोग माननीय प्रधानमंत्री जी के ख़िलाफ़ माहौल बनाने की वही कोशिश कर रहे हैं जो उस समय सफल नहीं हो पायी थी. अब इन्हें कौन समझाए कि इसमें रहस्योद्घाटनी अंदाज़ में कही जाने वाली कोई बात ही नहीं है. हाँ, साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने कहीं छुप कर नहीं, सार्वजनिक रूप से यह आशंका ज़ाहिर की थी कि मोदी जैसे व्यक्ति के आने से देश में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का उभार होगा, और वह आशंका सच साबित हुई. ऐसी साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी घटनाओं और बयानबाजियों का एक अनवरत सिलसिला बना जो अन्यथा इस तरह की बारंबारता के साथ नहीं होती थीं. फासीवाद के खतरे को साहित्यकारों ने पहले ही भांपा था –- जलेस ने फरवरी २०१४ के अपने राष्ट्रीय सम्मलेन में साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार के ख़िलाफ़ इलाहाबाद घोषणा के नाम से एक विश्लेषणात्मक प्रस्ताव पारित किया था –- वह हक़ीक़त बनता नज़र आने लगा. तो जो आशंका पहले से ज़ाहिर की जा रही थी, उसके सच साबित होने पर चुप होकर बैठ जाना चाहिए, या उचित प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने वह प्रतिक्रिया व्यक्त की.
लेकिन ये बातें मोदी-भक्तों के सामने बकने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे शुद्ध दलगत राजनीति कर रहे हैं, और ‘ऑफेंस इज़ डी बेस्ट डिफेन्स’ की रणनीति पर अमल करते हुए उलटा लेखकों-कलाकारों पर राजनीति का आरोप लगा रहे हैं. उनकी चाल बिलकुल साफ़ है: आरोप कमज़ोर ही सही, उन्हें इतनी बार और इतनी ताक़त से दुहराओ कि आम आदमी को उनमें सार नज़र आने लगे. इस चाल से शुरू में शायद जनमत को थोड़ा प्रभावित करने में वे कामयाब भी हुए. पर जल्दी ही पकड़ कमज़ोर पड़ने लगी. आख़िर चाल और वाजिब प्रतिक्रिया के अंतर को धुंधला कर पाना आसान थोड़े ही है!
अब बिहार के परिणाम से उन्हें यह सबक लेना चाहिए कि चालों की उम्र बहुत लंबी नहीं होती. आप जो हैं, वह खुल कर सामने आ ही जाता है. बेहतरी इसी में है कि चालबाजियों से बाज़ आयें.