Manifesto

जनवादी लेखक संघ का घोषणा पत्र

आजादी के पचास वर्ष बाद भी हमारा देश आज एक नाज़ुक स्थिति से गुज़र रहा है। आज़ादी के पहले हमारी जनता ने अपने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के जो महान स्वप्न देखे थे, वे इन वर्षों के दौरान लगातार टूटते और बिखरते गये हैं। उन्हें साकार करने के लिए जनता के संघर्षों में अपनी पूरी शक्ति और संकल्प के साथ शरीक होते हुए हमारे महान लेखकों ने हमारे साहित्य की राष्टीय और जनवादी परंपरा स्थापित की। इसलिए उस परंपरा को अपनी जनवादी परंपरा समझने वाले हमारे सारे लेखकों के लिए उन स्वप्नों का टूटना और बिखरना स्वभावत: चिंता का विषय है।

पराधीनता के दौर में हिंदी-उर्दू लेखकों ने साम्राज्यवादी-सामंतवादी व्यवस्था और उसकी विचारधारा के विरुद्ध भारतीय जनता के संघर्ष को शक्तिशाली बनाने में बहुत ही शानदार भूमिका निभायी थी। भारतेंदु, हाली और उनके युग के अन्य लेखकों ने अपनी रचनाओं के मायम से हमारे साहित्य की धा रा को राष्टीयता और जनवाद की ओर मोड़ा। प्रेमचंद ने उस परंपरा का अभूतपूर्व विकास किया और हमारे राष्टीय मुक्ति संग्राम और देश की मेहनतकश जनता की शोषण से मुक्ति के अभिन्न संबां की पहचान की। प्रगतिशील लेखक संघ के व्यापक संगठन और प्रभाव के साथ साम्राज्यवाद-सामंतवादविरो धी संघर्ष सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की मुख्य धारा बन गया। भारतीय जनता की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुक्ति के संघर्ष के साथ-साथ साम्राज्यवाद और सामंतवाद की पतनशील, पिछड़ी और अंधविश्वासपूर्ण विचाराधराओं के विरुद्ध एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक विचाराधरा के लिए संघर्ष में उसकी महान उपलबियों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

आज़ादी के बाद देश के शासक वर्ग ने आम जनता में तरह-तरह के भ्रम पैदा किये। हमारे लेखकों का काफ़ी बड़ा हिस्सा उन भ्रमों का शिकार हुआ। उन भ्रमों ने आज़ादी के पहले हमारे साहित्य में राष्टीय और जनवादी संघर्षों की परंपरा के विकास का रास्ता रोका। उस परंपरा के विरुद्ध प्रयोगवाद के नाम पर एक यथार्थविमुख नये सौंदर्यशास्त्र का उदय और प्रचार-प्रसार हुआ। इस स्थिति में, जो मूल्य पश्चिमी देशों की विशिष्ट परिस्थितियों में वहां उत्पन्न और प्रचलित हुए उन्हें हमारे देश के निहित स्वार्थों ने साहित्य और अन्य सांस्कृतिक  मायमों से हमारी जनता के मन में बैठाने की कोशिश की। पश्चिमी चिंतन और साहित्य पर छाये क्षणवाद, संशयवाद, कुंठावाद, लघु-मानववाद, अस्तित्ववाद और उनसे संलग्न अजनबीपन, अकेलापन, आत्मकेंद्रीयता आदि यथार्थविरोधी, पतनशील और अमानवीय मूल्यों ने आधुनिकतावाद और विश्वमानववाद कॉस्मोपॉलिटनिज्म़ के आवरण में हमारे साहित्य में प्रवेश किया और हमारे साहित्य की राष्ट्रीय और जनवादी परंपरा पर हमला बोल कर उसे कमज़ोर किया। नयी परिस्थितियों की पेचीदगी की पहचान करने में असफल अपने नेतृत्व की संकीर्णतावादी समझ और व्यवहार और उसके बाद जनविरोधी

शक्तियों के खिलाफ़ संघर्ष की जगह उनसे अवसरवादी समझौता करने की नीति के कारण प्रगतिशील लेखक संघ संगठित, व्यापक और प्रभावशाली ढंग से इस हमले का सामना नहीं कर सका। ऐसी हालत में अपनी विश्वसनीयता खोकर उसका कमज़ोर हो जाना और बिखरना स्वाभाविक था। आपात्‌काल के दौरान उसके नेतृत्व ने आपात्‌काल का समर्थन और देश की जनवादी शक्तियों से गहरा अलगाव कर उसकी बची-खुची विश्वसनीयता भी समाप्त कर दी। आज भी उसका नेतृत्व इस संबंध में सही आत्मालोचन करने के लिए तैयार नहीं है कि जनवादविरोधी शक्तियों के साथ समझौता किन कारणों से हुआ। आज भी, वह इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता कि आम जनवादी अधिकारों और क़लम की आज़ादी के लिए सबसे बड़ा खतरा व्यवस्था पर बड़े पूंजीपतियों के नेतृत्व से पैदा होता है। वह उन कारणों पर भी विचार नहीं कर रहा है जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ को जनवादी और वामपंथी लेखकों के एक व्यापक हिस्से को काट दिया। आज स्थिति यह है कि हमारे पास ऐसा संगठन नहीं जो सारे देशभक्त और जनवादी लेखकों को एकजुट कर, उन्हें अपने साहित्य की गौरवपूर्ण राष्टीय और जनवादी परंपरा को आज की नयी परिस्थितियों में आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित और आंदोलित कर सके।

देश की वर्तमान स्थिति ऐसे लेखकों से तात्कालिक जनवादी कार्रवाई की मांग करती है। विश्व के पैमाने पर जब पूंजीवादी व्यवस्था एक दुर्निवार और स्थायी संकट में फंसी हुई है, हमारे देश के शासक वर्ग ने पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था के अंतर्गत पूंजीवादी विकास का जो कार्यक्रम  चुना है, उसके गंभीर नतीजे हमारे सामने हैं। इस कार्यक्रम  ने न केवल हमारे राजनीतिक और आर्थिक जीवन पर बल्कि सांस्कृतिक  जीवन पर भी बड़े पूंजीपति घरानों को अपना शिकंजा कसने में मदद पहुंचायी है। साम्राज्यवादी लूटखसोट और षड्‌यंत्र और हमारी महान प्रगतिशील एवं जनवादी राष्टीय संस्ति पर उसके निरंतर बढ़ते हुए हमलों ने आज स्थिति को और भी विषम और चिंतनीय बना दिया है। साम्राज्यवादी व्यवस्था का नेता और संरक्षक अमरीका नरसंहार के नये नये अस्त्रों से अपनी दानवी शक्ति का प्रदर्शन कर दुनिया भर की जनता को आतंकित करना चाहता है और अपने हित में समूची मानवता और उसकी उपलबियों को युद्ध की आग में झोंक देने के लिए तैयार है । सारे विश्व में तनाव और आतंक का वातावरण पैदा करने की उसकी नीति का शिकार हमारा देश भी है। यह बात आज किसी से छिपी नहीं है कि हमारी राष्टीय एकता को तोड़ने और हमारी जनता को संप्रदायवाद तथा अन्य तरीकों से विभाजित करने के प्रयत्न में लगी हुई सारी प्रतिक्रियावादी, विघटनवादी ताक़तों को साम्राज्यवादी देश अपना प्रोत्साहन और समर्थन दे रहे हैं। आर्थिक संकट के साथ साथ राजनीतिक और सांस्कृतिक  संकट भी लगतार गहरे होते जा रहे हैं।

दिन-ब-दिन बढ़ती हुई ग़रीबी, महंगाई और बेरोज़गारी, हरिजनों तथा समाज के पिछड़े और ग़रीब तबक़ों पर बढ़ते हुए जुल्म और अत्याचार, अल्पसंख्यकों के साथ असमान व्यवहार, मज़दूरों-किसानों और निम्नमयवर्ग के लोगों का भयावह शोषण और दमन, भ्रष्टाचार, नैतिक मूल्यों का ह्रास, शासक वर्गों की राजनीति में कुत्सित अवसरवाद और गुंडागर्दी, क़ानून और व्यवस्था के टूटते हुए ढांचे के साथ सामान्य नागरिक जीवन में फैलती हुई असुरक्षा की भावना, शासनतंत्र की नपुंसकता और नृशंसता और नौकरशाही का उस पर गहरा होता हुआ प्रभाव, पुलिस द्वारा स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार और अभियुक्तों की आंखें निकाल लेने की घटनाएं, देश के विभिन्न भागों में सयि विघटनकारी प्रवृधयों को उकसाने और बढ़ाने वाली शक्तियों द्वारा राष्टीय एकता को विखंडित करने तथा जनवादी आंदोलन को कमज़ोर करने की साजिशें; क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय और जाति के नाम पर फैलायी जा रही संकीर्णता, वैमनस्य, तनाव और दंगे, निम्न मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों और पढ़े लिखे युवकों के असंतोष को पथभ्रष्ट करने, उनमें कुत्सित मानसिकता भरने, उन्हें आत्मकेंद्रित और समाजविमुख बनाने के लिए बाज़ारों को रक्तपात, अपराध, सैक्स आदि से संबंधत और साम्राज्यवादी देशों, विशेषत: अमरीका से आयातित साहित्य से पाट देने की खुली छूट और तरह तरह के आध्यात्मिक गुरुओं और उनके संगठनों का फैलाव, चलचित्र और कला के अन्य मायमों तथा प्रचार प्रसार के साधनों से युवकों और जनसाधारण को काल्पनिक लोकों में भटकाने या उन्हें अवांछित दिशाओं में प्रवृध करने की साजिश – वर्तमान भारतीय जीवन की एक तस्वीर यह है, और यह तस्वीर बहुत ही निराशाजनक है।

लेकिन, एक दूसरी तस्वीर भी है जो हमारी जनता के स्वस्थ मन की, अन्याय और अत्याचार के प्रति उसकी सहज घृणा और उसके विरुद्ध संघर्ष के अथक और अदम्य उत्साह की तथा अपनी अंतिम विजय में उसके विश्वास की तस्वीर है। अपनी मुक्ति और देश के भविष्य की यह तस्वीर उत्तरोत्तर उद्धबुद्ध, एकताबद्ध और संगठित होती हुई जनता बना रही है। भारतेंदु और हाली से लेकर आज तक हमारे सारे देशभक्त और जनवादी लेखकों ने उसी तस्वीर को पूर्णता देने के लिए अपनी क़लम की सारी ताक़त जनता को समर्पित की है। उन्होंने प्रकाशन और प्रचार प्रसार के मायमों पर शासक वर्गों के आधपत्य के बावजूद, जनता पर उनकी विचाराधरा के असर के बावजूद अपने सीमित साधनों के बल पर सारे प्रतिगामी और पतनशील मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जनाभिमुखता, धर्मनिरपेक्षता, आशावादिता, संघर्षशीलता, शोषित-पीड़ित वर्गों के प्रति आत्मीयता, अंतर्राष्टीयता आदि मूल्यों को हमारे साहित्य की विरासत का अभिन्न अंग बना दिया है। उन्होंने अपने को संगठित कर, अपनी लघु और अक्सर अनियतकालीन पत्रिकाएं निकालकर, गोष्ठियों एवं विचार-विनिमय आदि के आयोजन कर जनता और साहित्य के संबंधों को मज़बूत करने, साहित्य को जनता की आकांक्षाओं का आइना बनाने और जनता की चेतना के स्तर को ऊपर उठाने में जो सफलताएं हासिल की हैं, वे सारे जनवादी लेखकों के लिए चुनौती और संबल दोनों हैं।

वर्तमान व्यवस्था और हमारी जनता के बीच निरंतर और स्पष्ट तथा और उग्र होता जा रहा अंतर्विरोध आज की स्थिति की मुख्य विशेषता है। अपने तमाम विचाराधरात्मक अस्त्रों से जनता को गुमराह करने या दमन के अपने तमाम अस्त्रों से संघर्ष के उस मनोबल को तोड़ने में अपनी अक्षमता के अहसास के साथ व्यवस्था इस अंतर्विरोध का हल जनता के लिए जनतांत्रिक अधकारों और नागरिक स्वतंत्रता पर आक्रमण   के द्वारा करना चाहती है। आपात्‌काल की घोषणा एक ऐसा ही आक्रमण था। आज पुन: वैसे ही, उससे भी अधिक और सुनियोजित और ज़ोरदार, आक्रमण   की तैयारियों के लक्षण सामने आ रहे हैं और सर्वाधकारवाद को आपात्‌काल से भी दृढ़ आधार पर स्थापित करने के लिए न सिर्फ़ राष्टीय सुरक्षा क़ानून तथा आवश्यक सेवा अनुरक्षण क़ानून की तरह के काले क़ानूनों का सहारा लिया जा रहा है बल्कि देश के संवाधिन को प्राय: उलट देने की साजिशें चल रही हैं और उसके अंतर्गत जनता के मौलिक अधकारों, समाचार पत्रों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता, राज्यों के सीमित स्वाया अधकारों आदि पर हमले किये जा रहे हैं। इस तरह जनवाद पर ख़तरे के बादल फिर मंडराने लगे हैं।

इसलिए जनवाद की रक्षा और उसके विकास का संघर्ष जनता के विभिन्न वर्गों और हिस्सों के सारे संघर्षों का केंद्रीय और अभिन्न अंग बनता जा रहा है। नागरिक के रूप में अपनी सामाजिक भूमिका के निर्वाह के लिए लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को उस संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता; क्योंकि यह असंभव है कि जनता के जनवादी अधकार और उसकी नागरिक स्वतंत्रता उससे छिन जाये, उसका दमन हो और लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क़ायम रह जाये और वह दमन से बच जाये।

कला और साहित्य की शक्ति का बोध व्यवस्था को भी है। इसलिए जनवादी मूल्यों में आस्था रखने वाले और उसके लिए संघर्ष करने वाले लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के दमन की योजना बनाने वाला शासकवर्ग बड़े पैमाने पर लेखकों को खरीदने के प्रयत्न में लगा है। उसके सयि प्रोत्साहन से व्यवस्था से जुड़े हुए तथा प्रतिक्रियावादी लेखक बड़े ही सुनियोजित ढंग से अपने को पुनर्संगठित कर रहे हैं और आधुनिकतावाद तथा तरह तरह के यथार्थविरोधी साहित्यिक नारों को उछालने के साथ साथ जनाकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाले तथा उसके लिए संघर्ष करने वाले लेखकों को भी तरह तरह के संरक्षणों,  प्रलोभनों तथा पुरस्कारों से गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चय ही, प्रयोगवादी, और अन्य यथार्थविरोधी रुझानों के बढ़ते हुए दबावों के बावजूद हमारे साहित्य में यथार्थवादी परंपरा को सुरक्षित रखने और विकसित करने के असंगठित प्रयास चलते रहे। हमारी जनता और लेखों में व्यवस्था द्वारा फैलाये गये भ्रमों के टूटने के साथ उन्हें और भी बल मिला। बाद में, लघु पत्रिकाओं की प्रखर चेतना से संपन्न लेखकों ने संघर्षमूलक रचनात्मक वातावरण तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस वातावरण को विघटित करने में शासन और व्यवस्था की मिलीभगत है। परिणामत:, आधुनिकतावादी और सौंदर्यवाद की प्रवृधयों के पुनर्विस्तार के ख़तरे आज फिर हमारे सामने उपस्थित हैं।

इस स्थिति की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि व्यवस्था ने साहित्य का व्यवसायीकरण कर साहित्य के सारे सृजनात्मक मूल्यों और उसके महान सामाजिक  के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है। व्यवस्था ने साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन को भी लगभग असंभव सा कर दिया है। पिछले तीन-चार वर्ष में प्रकाशन साधनों की क़ीमतों में लगभग दस गुनी वृद्धि का यह एक स्वाभाविक परिणाम हुआ है कि साहित्यिक कृतियां आज सामान्य पाठकों की यशक्ति के बाहर हो गयी हैं।

इसके अतिरिक्त, व्यवस्था साहित्य का व्यवसायीकरण कर प्रतिभासंपन्न लेखकों को भी ख़रीदने के लिए प्रयत्नशील है। यह स्थिति साहित्य के सारे सृजनात्मक मूल्यों और उसके महान सामाजिक उद्देश्यों के लिए खतरनाक है।

फिर भी यह प्रसन्नता की बात है कि व्यवस्था के इन सारे संगठित प्रयत्नों के बावजूद, जो उसने हमारे साहित्य को जनता के जीवन, उसकी आकांक्षाओं और उसके संघर्षों से विमुख करने के लिए किये हैं; हमारे लेखकों का क़ाफी बड़ा हिस्सा अपनी सामाजिक भूमिका के बारे में लगातार सोचता रहा है और अनेक तरह के प्रलोभनों और कठिनाइयों का सामना करते हुए उसका सही निर्वाह कर रहा है।

इस सजग चेतना और सयिता का ही परिणाम है कि आपात्‌काल के कटु अनुभवों से सबक़ लेकर एक ओर जनता के जनवादी अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति बढ़ते हुए ख़तरे को देखते हुए और दूसरी ओर साहित्य तथा संस्कृति पर शासनतंत्र के कसते हुए शिकंजे की कठोरता के अनुभव से, उसके विरुद्ध अविलंब जवाबी कार्रवाई की आवश्यकता महसूस करते हुए हमारे अधिकांश लेखक आज अपना एक ऐसा संगठन चाहते हैं जो किसी भी हालत में जनविरोधी शक्तियों के प्रति अवसरवादी और समझौतापरस्ती का रुख न अपनाये। जनवादी लेखक संघ एक ऐसा ही संगठन है।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो साहित्य की वस्तु, रूप और शैलियों के बारे में अपने दृष्टिकोणों और रुचियों की विविधता के बावजूद जनवाद को हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक  नियति का अभिन्न अंग मानते हैं और जो उसकी रक्षा और विकास के संघर्ष को अपना एक आवश्यक लेखकीय कर्तव्य समझते हैं।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो यह समझते हैं कि उनका हित जनता के हित से पूरी तरह जुड़ा है। अनुभव उन्हें बताता है कि न केवल उनके आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य भौतिक हित ही बल्कि उनकी लेखनी की स्वतंत्रता भी उन जनतांत्रिक अधकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं पर निर्भर है जिनकी रक्षा और विस्तार के लिए हमारे देश की जनता-विशेषत: मेहनतकश जनता-लड़ाई की अगली पांत में रहती है और उनके लिए सबसे ज्य़ादा उत्सर्ग करती है। इसलिए जनवादी लेखक संघ का यह प्रयास है कि हमारे लेखक एकजुट होकर जनता के एक शक्तिशाली दस्ते के रूप में जनवाद की रक्षा और विस्तार के संघर्ष में अपने कर्तव्य का पूरा और सही निर्वाह कर सकें। उनका कर्तव्य है कि वे हमारी जनता के जीवन, उसके स्वप्नों और संघर्षों को अपनी रचनाओं में भाव और भाषा के सहज सुंदर रूपों में प्रतिबिंबित करें, उसकी जनवादी चेतना को पुष्ट और विकसित करें, उसके संघर्ष के मनोबल को दृढ़ करें। जनवादी लेखक संघ इस कर्तव्य को अपने साहित्य और  की मानवतावादी, वस्तुवादी, संघर्षधर्मी, राष्टीय और जनवादी परंपरा की देन समझता है।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो लोकभाषा और लोकसाहित्य के प्रति न केवल सम्मान की भावना रखते हैं बल्कि उनकी निरंतर प्रवाहित धारा से प्रेरणा और शक्ति ग्रहण करते हैं।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो सांप्रदायिक संकीर्णता, जातिवाद, पुनरुत्थानवाद, विघटनवाद तथा अंधराष्टवाद और भाषा तथा क्षेत्रीयता के नाम पर हमारी जनता और राष्ट की एकता को तोड़ने वाली शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो विश्वमानववाद की साम्राज्यवादी विचाराधरा के विरुद्ध संघर्ष करना अपना राष्टीय दायित्व समझते हैं, क्योंकि इसकी आड़ में साम्राज्यवाद, साधारण जनता को तथा बुद्धिजीवियों को हमारी राष्टीय संस्कृति से विच्छिन्न करने का प्रयत्न करता है।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो आधुनिकतावाद के विरुद्ध संघर्ष करना आवश्यक समझते हैं, क्योंकि आधुनिकतावाद हमारे साहित्य की सारी यथार्थवादी और जनवदी परंपराओं को समाप्त करने का षड्‌यंत्र रचता है।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो जनवाद के ऐसे विस्तार के लिए संघर्ष करते हैं जिससे हमारी जनता अपनी ज़िंदगी को शोषण से मुक्त कर उसे बेहतर बना सके और अपनी रचनात्मक शक्ति का विकास कर सके।

जनवादी लेखकों का यह संगठन ऐसे तमाम लेखकों को एकजुट होकर अपनी रचनात्मक शक्ति संयुक्त और संगठित करने का आह्‌वान करता है जिनकी जनवाद में आस्था है, जो सामाजिक विकास और परिवर्तन के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं, जो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जनविरोधी, मानवविरोधी और अराजक आधुनिक प्रवृत्तियों की भर्त्सना करते हैं, जो अंतर्राष्टीय तनाव और युद्धोन्माद पैदा करने वाली शक्तियों के विरोधी और शांति के पक्षधर हैं, जो हमारी जनता के लिए भूख, ग़रीबी, उत्पीड़न, अज्ञान और अंधविश्वास से मुक्त जीवन के निर्माण का स्वप्न देखते हैं और जो अपनी रचनाओं के माध्यम से उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनवरत रूप से संघर्षरत हैं।