जलेस केंद्र का परिपत्र 03/12/2015

साथियो,

जैसा कि आप जानते हैं, देश में हालात बहुत सामान्य नहीं हैं. २०१४ में हुए अपने राष्ट्रीय सम्मलेन में हमने ‘इलाहाबाद घोषणा’ के रूप में जिन ख़तरों की ओर इशारा किया था, वे तेज़ी से हक़ीक़त की शक्ल ले रहे हैं. साम्प्रदायिक सद्भाव, असहमति का सम्मान और विविधता के प्रति खुलापन – इन मूल्यों की दिशा में हमारे लोकतंत्र के बढ़ते क़दमों को ज़ोरदार झटका लगा है और एक तरह की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है. केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ प्रतिक्रियावादी विचारधारा साम्प्रदायिक सद्भाव की जगह हिन्दुत्ववादी-ब्राह्मणवादी वर्चस्व, असहमति के सम्मान की जगह उसके प्रति असहिष्णुता/क्रूरता/हिंसा और विविधता की जगह दमनकारी एकरूपता की दिशा में लगातार सक्रिय है. घटनाओं के न थमने वाले सिलसिले से आप परिचित है, उन्हें यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं.

ये हालात लेखक और लेखक संगठन के रूप में हमसे सक्रिय हस्तक्षेप की मांग करते हैं, जो कि हम अपनी-अपनी जगहों से यथासंभव कर भी रहे हैं. लेखकों ने लेखन के अलावा पुरस्कार वापसी के द्वारा जिस प्रतिरोध की शुरुआत की, उसकी गूँज पूरी दुनिया के पैमाने पर सुनी गयी और साम्प्रदायिक असहिष्णुता के ख़िलाफ़ एक ऊर्जावान माहौल बना. इतिहासकार, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, फिल्मकार, अभिनेता और तमाम तरह के बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों ने इस विरोध-अभियान में शामिल होकर प्रतिक्रियावादी-प्रतिगामी रुझानों पर रोक लगाने की माँग की.

 

न तो ये रुझान बहुत जल्द नियंत्रण में आने वाले हैं और न ही इनके ख़िलाफ़ जागरूक लोगों का संघर्ष आनन-फ़ानन में निपटने वाला है. यह एक लम्बी चलने वाली लड़ाई है. नव-उदारवाद के विकास-मॉडल को – जिसमें बेरोज़गारी, जनता के बड़े हिस्से की बदहाली और अभूतपूर्व अनुपात में बढ़ती आर्थिक ग़ैर-बराबरी शामिल हैं – अपने जनविरोधी चरित्र की ओर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए उस सामाजिक उथल-पुथल और फूटपरस्त विचारधारा की ज़रूरत है जिसे आरएसएस और उससे जुड़े, या उसकी समझ को लेकर चलने वाले, सैंकड़ों संगठन पूरा कर रहे हैं. शासक वर्गों के सबसे प्रभावी हिस्से के रूप में जब इस देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग अपनी ही एक पार्टी को अपदस्थ कर दूसरी को सत्ता सौंपने में तन-मन-धन से जुट गया था, तब उसे यह अहसास था कि यह दूसरी पार्टी न सिर्फ़ राज्य की कल्याणकारी भूमिका को समाप्त करने और नव-उदारवाद को खुला मैदान सौंपने के मामले में अधिक सक्षम साबित होगी, बल्कि उससे पैदा होनेवाले असंतोष को अन्य दिशाओं की ओर मोड़ने का माद्दा भी उसके पास ज़्यादा है. वही आज हो रहा है. इसलिए यह सोचना कि असहिष्णुता का यह माहौल कुछ दिनों की बात है, सदाशयी भोलेपन का ही नमूना होगा. क्रूर जातिगत उत्पीड़न और महिलाओं के दमन के रूप में जो असहिष्णुता हमारे समाज में हमेशा से मौजूद रही है, उसका अनेक आयामों में बहुत बड़े पैमाने पर होने वाला यह प्रसार अभी थमने नहीं जा रहा. लिहाज़ा उसके साथ हमारी लड़ाई भी अभी लम्बी चलनी है.

 

इन हालात के मद्देनज़र कुछ बातें बिन्दुवार रखने की ज़रूरत है:

१.      केंद्र समेत हमारी लगभग सभी इकाइयां मौजूदा माहौल में अपनी-अपनी क्षमता भर हस्तक्षेप कर रही हैं, लेकिन तीव्र संचार के इस दौर में भी हम आपस में एक-दूसरे की गतिविधियों से पूरी तरह वाकिफ़ नहीं हैं. हमारा आपसी संवाद-संचार बेहद कमज़ोर है. इससे समस्या यह होती है कि हर जगह चलने वाली सांगठनिक गतिविधियों से राष्ट्रीय पैमाने पर संगठन के भीतर जो उत्साह का वातावरण बनना चाहिए, वह नहीं बन पाता और हम ‘कुछ-हो-नहीं-रहा’ वाले अवसाद के शिकार होते जाते हैं, जो खुद ‘कुछ होने’ की दिशा में एक बाधा बन कर अटूट दुष्चक्र को जन्म देता/दे सकता है. हमें विभिन्न माध्यमों से पता चला कि हमारे कुछ साथियों को बिल्कुल जानकारी नहीं कि जलेस केंद्र ने इस बीच कौन-कौन-सी गतिविधियाँ कीं और किन घटनाओं-परिघटनाओं पर बयान जारी किये, जबकि जलेस की वेबसाइट (www.jlsindia.org) और उसके फेसबुक (janvadi lekhak sangh india) पर उन सब के ब्योरे मौजूद हैं. हम अपने बयान उन साथियों को ईमेल भी करते रहे हैं जिनके मेल आईडी हमारी मेलिंग लिस्ट में मौजूद हैं. इसके बावजूद अगर जलेस केंद्र के रवैये, नज़रिए और सक्रियता को लेकर सवाल उठाये जाते हैं तो यह निश्चित रूप से संचार-सेतुओं की कमज़ोरी का नतीजा है. इसके मद्देनज़र केन्द्रीय कार्यकारिणी के साथियों और राज्यों के सचिवों-उपसचिवों से अनुरोध है कि वे अधिकतम साथियों के मेल आईडी केंद्र को भेजें ताकि केंद्र आवश्यक सूचनाएं ज़िला स्तर तक भी खुद ही भेज सके. इसके साथ-साथ उनसे यह अपेक्षा करना भी अनुचित न होगा कि वे ज़िला इकाइयों तक केंद्र के बयानों और गतिविधि-सूचनाओं को प्रेषित करें ताकि वह आगे साधारण सदस्यों तक पहुँच सके, और अपने राज्य में होने वाली गतिविधियों के बारे में कुछ शब्द लिख कर केंद्र को भी मेल कर दें ताकि वेबसाइट पर उसे डाल कर उन्हें अन्य लोगों की जानकारी में भी लाया जा सके. इस नयी संचार-व्यवस्था का हमें भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए.

२.      हमारी इकाइयों को आगे साल भर, या कम-से-कम छह महीने के लिए अपनी गतिविधियों का ख़ाका बना कर रखना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि हमारे कार्यक्रमों में साहित्य के साथ-साथ गायन, संगीत और नाट्य-मंचन जैसी विधाएं भी शामिल हों. ऐसी योजना बना कर उस पर अमल करने के साथ-साथ हमें अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार पर होने वाले हमलों पर अविलम्ब प्रतिक्रिया देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. मुमकिन है, औचक हुई घटनाओं पर प्रतिरोध आयोजित करने के क्रम में गतिविधियों की पूर्वनिर्धारित योजना में समय-समय पर तब्दीलियाँ करनी पड़ें, पर वह कोई समस्या नहीं. लखनऊ इकाई ने इसका एक अच्छा उदाहरण पेश किया जब बहुत पहले से तय एक कविता-केन्द्रित दो-दिवसीय आयोजन को उन्होंने ‘समय के सवाल और हमारा प्रतिरोध’ विषय से जोड़ दिया, साथ ही, आयोजन को सहिष्णुता के पक्ष में कवियों-श्रोताओं के एक ‘मार्च’ के साथ ख़त्म किया जो कि लगभग आख़िरी समय में लिया गया फ़ैसला था.

३.      हमारी इकाइयों को अपने स्वतंत्र कार्यक्रमों के अलावा अपने क्षेत्र में सक्रिय अन्य बिरादराना संगठनों के साथ संयुक्त रूप से भी कार्यक्रम करने की पहल लेनी चाहिए. यह ऐसा चुनौतीपूर्ण समय है और अलग-अलग हम सबकी ताक़त इतनी कम है कि जितना संभव हो उतना व्यापक मोर्चा बना कर ही इस चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है. इसके लिए समान जनप्रतिबद्धता से जुड़े लेखकों, संगठनों के प्रति छुआ-छूत के रवैये को छोड़ने की आज सख्त ज़रूरत है. यही नहीं, साहित्य के आस्वाद, मापदंड और सामाजिक किरदार के मामले में हमारी समझ जिन लोगों से बिल्कुल जुदा रही है, मुद्दों पर उनके साथ जाने से भी कतराना नहीं चाहिए. जब मुक़ाबला दकियानूसी और फ़ासीवादी दमन से हो, तब तर्क और विवेक तथा अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार का हर पक्षधर हमारा संभावित सहयोद्धा है. हमारे कुछ साथियों को ऐसा मानने में परेशानी होती है. वे साथी समय की मांग, व्यापकता की ज़रूरत, अपनी ताक़त की सीमाओं, यानी कुल मिला कर, कार्यनीतिक पहलुओं को समझने में चूक कर रहे हैं. उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम जैसी चीज़ सांस्कृतिक सक्रियता के धरातल पर भी होती है/होनी चाहिए और वह इस आधार पर तय होता है/होना चाहिए कि अपनी विरोधी धाराओं में से आप किसकी चुनौती को अधिक ख़तरनाक और सम्मुख मानते हैं. इस समझ के साथ जब हम साझा मंच पर किसी के साथ खड़े होते है तो इसका मतलब उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं कर लेना नहीं होता. यह आशंका, कि जो लोग कभी प्रगतिशील-जनवादी आन्दोलन के साथ नहीं रहे, या उसके ख़िलाफ़ रहे, उनके साथ मिल कर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के विरुद्ध लड़ाई में उतरने से हम पिछलग्गू ठहरेंगे और नेतृत्व उनके हाथ रहेगा, निराधार है. अव्वल तो एक बड़ी लड़ाई को नेतृत्व की लड़ाई के रूप में न्यूनीकृत करना ही गलत है. कम-से-कम हमें – जिनके लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुद्दा किसी भी तरह के ‘किन्तु-परन्तु’ से ऊपर रहा है – इस तरह से नहीं सोचना चाहिए. दूसरे, नेतृत्व इस बात से तय होता है कि कौन सबसे सुसंगत और अनवरत तरीक़े से संघर्ष को चला पाता है और सबसे विपरीत परिस्थितियों में भी अविचल रहता है. जो ऐसा कर पायेगा, नेतृत्व उसी के पास रहेगा, वह चाहे हम हों या कोई और! इसलिए ज़रूरी है कि हम इस मुहिम में अधिकतम लोगों को शामिल करने और व्यापकतम मोर्चों में शामिल होने के लिए तैयार रहें और सर्वाधिक निरंतरता के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे जारी रखने का प्रयास करें. संकीर्णतावाद से बचना आज पहले से भी ज़्यादा ज़रूरी है.

४.      ऐसी चर्चाएँ भी सुनने में आ रही हैं कि जब जलेस केंद्र ने पुरस्कार वापसी की मुहिम का समर्थन किया है तो उसके कुछ सदस्य इस मुहिम के प्रति ऐसी राय कैसे ज़ाहिर कर रहे हैं जो नकारात्मक है या उतनी सकारात्मक नहीं है. इस सम्बन्ध में केंद्र की नीति स्पष्ट है. पद्धतियों के प्रति असहमति ज़ाहिर करना हमारे सदस्यों का जनवादी अधिकार है. पुरस्कार लौटाना एक उचित, प्रभावी, और अभिनंदनीय प्रतिरोध-पद्धति है या नहीं, इस पर केंद्र के नीति से अगर हमारे साथी रचनाकार असहमत होते हैं तो उन्हें क़दम-क़दम पर किसी सांगठनिक ‘लाइन’ से बाँधने का प्रयास जनवाद के बुनियादी उसूलों का उल्लंघन है. चिंतनशील व्यक्तियों के संगठन के भीतर ऐसी असहमतियां रहती हैं और रहेंगी. हाँ, अगर असहमतियां पद्धति के प्रति न होकर लक्ष्य के प्रति हों तो साथ चल पाने की संभावनाओं पर सवाल खड़े होने चाहिए. जहां तक जलेस केंद्र की जानकारी है, पुरस्कार वापसी की मुहिम से असहमत किसी रचनाकार साथी ने देश में बढ़ती असहिष्णुता और उसके ख़िलाफ़ संघर्ष की ज़रूरत से इनकार नहीं किया है. ऐसे में अगर पुरस्कार लौटाना उन्हें पर्याप्त प्रभावी तरीक़ा नहीं लगता, या लौटाने वालों को अभिनंदनीय बनाने पर वे आपत्ति दर्ज करते है तो उनकी असहमति से असहमत होते हुए और उससे दूरी बनाते हुए भी जलेस, जनवाद के सिद्धांतों के आधार पर, उन्हें निंदनीय नहीं मानता. संगठन उनके प्रति नकारात्मक रुख़ कभी अख्तियार नहीं कर सकता.

अंत में, हम जलेस की सभी राज्य इकाइयों से अनुरोध करते हैं कि अपनी कार्यकारिणी की बैठक कर असहमति के अधिकार के पक्ष में और साम्प्रदायिक, दकियानूसी असहिष्णुता/हिंसा के ख़िलाफ़ अपने कार्यक्रमों का ख़ाका जल्द-से-जल्द तैयार करें और नीचे की इकाइयों तक भी इसे ले जाएँ. साथ ही अपने राज्य के जलेस सदस्यों के अधिकतम मेल-पते हमें मुहैया कराएं

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)

संजीव कुमार (उपमहासचिव)

 


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