‘मार्च फॉर इंडिया’: असहिष्णुता का एक और नमूना

नयी दिल्ली: 8 नवंबर, कल अनुपम खेर के नेतृत्व में भारत की सहिष्णुता के अक्षत होने का दावा करते हुए जो ‘मार्च फॉर इंडिया’ आयोजित किया गया, वह स्वयं विडम्बनापूर्ण तरीक़े से देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता का एक नमूना साबित हुआ. आरएसएस से सम्बद्ध संस्था ‘संस्कार भारती’ द्वारा आयोजित इस रैली में ‘ढोंगी साहित्यकारों को, जूते मारो सालों को’ जैसे नारे लगाए गए. असहिष्णुता पर बोलनेवालों को देशद्रोही बताया गया और उन्हें वाघा बॉर्डर के पार फेंक देने की धमकी दुहराई गयी. कवरेज के लिए आये पत्रकारों को इस बात के लिए गालियाँ दी गयीं कि उन्होंने असहिष्णुता का विरोध करनेवालों को अपने चैनलों में जगह क्यों दी. उन्हें, और ख़ास तौर से महिला पत्रकारों को, बार-बार ‘प्रेस्टीटयूट्स’ कह कर हिंसक मुद्राएँ प्रदर्शित की गयीं और खदेड़ा गया. एनडीटीवी की भैरवी सिंह के साथ तो उनकी बदतमीज़ी कैमरे में दर्ज है.

यह पूरा दृश्य 23 अक्टूबर को दिल्ली के श्रीराम सेंटर से साहित्य अकादमी तक निकाले गये साहित्यकारों-कलाकारों के मौन जुलूस और 1 नवम्बर को मावलंकर हॉल में आयोजित प्रतिरोध सभा – जिसमें देश के सबसे अग्रणी बुद्धिजीवी सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित थे — के दृश्य से 180 डिग्री पर उलट था. इन दृश्यों को चिन्हों के रूप में पढ़ने की ज़रुरत है. जो लोग स्वयं असहिष्णु हैं, उन्हें अगर आज के भारत में कुछ भी ऐसा नज़र नहीं आता जिसे पहले से चली आती साम्प्रदायिक, कट्टरपंथी हिंसाओं के मुकाबले और भी ख़तरनाक माना जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं. उन्होंने इस कट्टरता का आभ्यंतरीकरण कर लिया है, वह उनके सोच का हिस्सा बन गयी है, जो कि प्रतिक्रिया व्यक्त करने की उनकी पद्धति से ज़ाहिर है. पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों-कलाकारों से उनकी शिकायत सारतः यही है कि वे भी इस कट्टरता का आभ्यंतरीकरण कर मौजूदा हालात को उनकी तरह ‘सामान्य’ क्यों नहीं मान लेते! जो लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी फासीवादी हिंसा के ख़िलाफ़ खड़े हुए हैं, उन्हें अगर अनुपम खेर, केन्द्रीय संस्कृति मंत्री और आरएसएस के प्रवक्ता एक ही स्वर में भारतविरोधी बताते हैं, तो इसके पीछे यही समझ है.

लेकिन मसला सिर्फ इतना नहीं है. उक्त रैली एक शुद्ध राजनीतिक उपक्रम था और वह भी उसी अर्थ में जिस अर्थ में पुरस्कार लौटाने वालों पर राजनीति करने का गलत आरोप इन ताक़तों की ओर से बार-बार लगाया गया है. इसमें आरएसएस और उससे जुड़ी संस्थाओं तथा भाजपा के लोग बड़ी तादाद में इकट्ठा हुए थे. उनका दावा था कि जिन साहित्यकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने भारत को बदनाम करने की साज़िश रची है, उन्हें वे बेनकाब करेंगे, पर इस प्रयास में वे स्वयं बेनक़ाब हुए. उनके तेवरों को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यह रैली नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसारे, प्रो. कलबुर्गी, अखलाक़ और ऐसे ही अन्य लोगों के हत्यारों के पक्ष में थी.

जनवादी लेखक संघ उक्त रैली के पूरे मिज़ाज और इरादों की कठोर शब्दों में निंदा करता है. पत्रकारों और खास तौर से महिला पत्रकारों के साथ जिस तरह की बदसलूकी इस रैली में हुई, और असहिष्णुता का विरोध करने वालों का विरोध करते हुए जिस तरह की असहिष्णुता और असभ्यता का प्रदर्शन किया गया, वह भर्त्सना के लायक ही नहीं, चिंताजनक भी है. हम अनिर्णय की स्थिति में पड़े लोगों से यह अपील करते हैं कि दोनों पक्षों के विरोध-प्रदर्शन के तरीक़ों पर गौर करते हुए अपना पक्ष तय करें.


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