एनसीईआरटी की किताबों में बदलाव

नयी दिल्ली : 25 अप्रैल 2023 : विद्यार्थियों का बोझ कम करने के नाम पर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में जिस तरह के बदलाव किये गये हैं और अलग-अलग माध्यमों में जैसे कुतर्कों के साथ उनका बचाव किया जा रहा है, दोनों बेहद चिंताजनक और निंदनीय हैं। 2022 के जून महीने में एनसीईआरटी ने इन बदलावों की सूची जारी की थी। तदनुसार संशोधित पाठ्यपुस्तकें अब 2023-24 के सत्र के लिए बाज़ार में उपलब्ध हैं जिनमें ऐसे संशोधन भी हैं जिनका पुनर्संयोजित सामग्री की सूची में उल्लेख नहीं था। अलग-अलग दर्जों की इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, विज्ञान, हिंदी आदि की किताबों से मुग़ल काल, गुजरात दंगे, आपातकाल, नक्सलबाड़ी आंदोलन, वर्ण और जाति संघर्ष, जन आंदोलनों के उभार, डार्विन के विकासवाद, दलित लेखकों के उल्लेख और मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद के उल्लेख से संबंधित अंशों को जिस तरह हटाया गया है, वह साफ़ बताता है कि इस पुनर्संयोजन का मक़सद शैक्षणिक न होकर पूरी तरह से राजनीतिक है। महात्मा गांधी की हत्या के प्रसंग से उन वाक्यों को निकाल बाहर किया गया है जो आरएसएस-भाजपा के लिए असुविधाजनक थे और यह बदलाव पुनर्संयोजित सामग्री की सूची में भी शामिल नहीं था।

हिंदुत्व के एजेंडे के हिसाब से पाठ्यपुस्तकों में किये गये ये बदलाव यह सुनिश्चित करते हैं कि विद्यार्थी न सिर्फ़ भारतीय इतिहास और राजनीति के ऐसे प्रसंगों से अनभिज्ञ रहें जो सत्ताधारी दल के लिए असुविधाजनक हैं बल्कि उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक चेतना का विकास भी अवरुद्ध हो जो कि हिंदुत्ववादी सोच के लिए सर्वानुमति निर्मित करने में मददगार साबित होगा। यही कारण है कि लगभग 200 इतिहासकारों और समाजवैज्ञानिकों ने बयान जारी कर इतिहास तथा राजनीतिशास्त्र की किताबों में किये गये बदलावों का विरोध किया है और 1800 वैज्ञानिकों तथा विज्ञान-शिक्षकों ने बयान जारी कर डार्विन के विकासवाद को दसवीं कक्षा से, जिसमें विज्ञान की पढ़ाई सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है, हटाये जाने का विरोध किया है।

इन बदलावों का बचाव करते हुए कुछ लोगों ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें यह सफ़ेद झूठ भी शामिल है कि किसी एक कक्षा से वही चीजें हटायी गयी हैं जो दूसरी कक्षा की किताब में मौजूद हैं। किताबों की जांच से यह बात बिल्कुल ग़लत साबित होती है। सच्चाई यह है कि देश की साझा सांस्कृतिक विरासत के प्रति आश्वस्त करनेवाले और लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, आलोचनात्मक नज़रिये को प्रोत्साहित करनेवाले अंशों से मौजूदा निज़ाम को दिक़्क़त है। इसीलिए बदलावों का समर्थन करते हुए 12 अप्रैल के ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में लिखी अपनी टिप्पणी में जनेवि की कुलपति खुद को यह कहने से नहीं रोक पायीं कि ‘अगर इतिहास की इन किताबों के लेखक स्कूल के बच्चों को मुग़लों की उदारता और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने की ज़रूरत महसूस करते हैं, तो उनकी धार्मिक बुनियादपरस्ती की कहानियों की उम्मीद करना भी उतना ही समुचित होगा।’ असली इरादे इसी तरह बेनक़ाब होते हैं। यह भारत के इतिहास को हिंदू-मुसलमान में बांटकर देखनेवाली वही औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि है जिसका उपयोग औपनिवेशिक ताक़तें ‘बांटो और राज करो’ की नीति के तहत करती आयी थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि आज के दौर में इस सोच के साथ पाठ्यपुस्तकों को बदला जाना दुर्भाग्यपूर्ण और ख़तरनाक है।

जनवादी लेखक संघ वैज्ञानिकों, विज्ञान-शिक्षकों और समाजवैज्ञानिकों द्वारा किये गये विरोध के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है और अविवेक को बढ़ावा देनेवाले इस कथित ‘रैशनलाईज़ेशन’ को वापस कर पाठ्यपुस्तकों को अपने पिछले स्वरूप में बहाल किये जाने की मांग करता है।


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