वरवर राव को रिहा करो!

आज, तारीख़ 14/07/2020 को न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन नाट्य मंच, इप्टा, प्रतिरोध का सिनेमा और संगवारी की ओर से निम्नांकित बयान जारी किया गया:

वरवर राव को रिहा करो!

 

भीमा कोरेगांव मामले तथा अन्य सभी मामलों में विचाराधीन लेखकों-मानवाधिकारकर्मियों को रिहा करो !

 

 

‘…कब डरता है दुश्मन कवि से ?

जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं

वह कै़द कर लेता है कवि को ।

फाँसी पर चढ़ाता है

फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार

दूसरी ओर अमरता

कवि जीता है अपने गीतों में

और गीत जीता है जनता के हृदयों में।’

 

–वरवर राव, बेंजामिन मोलेस की याद में, 1985

देश और दुनिया भर में उठी आवाज़ों के बाद अंततः 80 वर्षीय कवि वरवर राव को मुंबई के जे जे अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया है। राज्य की असंवेदनशीलता और निर्दयता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जिस काम को क़ैदियों के अधिकारों का सम्मान करते हुए राज्य द्वारा खुद ही अंजाम दिया जाना था, उसके लिए लोगों, समूहों को आवाज़ उठानी पड़ी।

विगत 60 साल से अधिक वक़्त से रचनाशील रहे वरवर राव तेलुगू के मशहूर कवियों में शुमार किये जाते हैं। उनके 15 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से अनेक का तमाम भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। साहित्यिक आलोचना पर लिखी उनकी छह किताबों के अलावा उनके रचनासंसार में और भी बहुत कुछ है।

मालूम हो कि उनके गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने तथा बेहतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की मांग को लेकर अग्रणी अकादमिशियनों- प्रोफेसर रोमिला थापर, प्रोफेसर प्रभात पटनायक आदि ने महाराष्ट्र सरकार तथा एनआईए को अपील भेजी थी। उसका लब्बोलुआब यही था कि विगत 22 माह से वे विचाराधीन क़ैदी की तरह जेल में बंद हैं, और इस अंतराल में बिल्कुल स्वेच्छा से उन्होंने जांच प्रक्रिया में पूरा सहयोग दिया है, ऐसी हालत में जब उनका स्वास्थ्य गिर रहा है तो उन्हें कारावास में बंदी बनाये रखने के पीछे ‘कोई क़ानूनी वजह’ नहीं दिखती (‘there is no reason in law or conscience’)।

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र होने का दावा करनेवाले मुल्क में क्या किसी विचाराधीन क़ैदी को इस तरह जानबूझ कर चिकित्सा सुविधाओं से महरूम किया जा सकता है और क्या यह एक क़िस्म का ‘एनकाउंटर’ नहीं होगा – जैसा सिलसिला राज्य की संस्थाएं खुल्लमखुल्ला चलाती हैं ?

विडम्बना ही है कि भीमा कोरेगांव मामले में बंद ग्यारह लोग – जिनमें से अधिकतर 60 साल के अधिक उम्र के हैं और किसी न किसी स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे हैं – उन सभी के साथ यही सिलसिला जारी है।

पिछले माह ख़बर आयी थी कि जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को अचानक अस्पताल में भरती करना पड़ा था। प्रख्यात समाजवैज्ञानिक, आंबेडकर वांग्मय के विद्वान् और तीस से अधिक किताबों के लेखक प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े – जो पहले से सांस की बीमारी का इलाज करवा रहे थे – उन्हें जहां अस्थायी तौर पर रखा गया था, वहां तैनात एनआईए-कर्मी खुद कोरोना पॉजिटिव निकला था। किस तरह क़ैदियों से भरे बैरक और बुनियादी स्वच्छता की कमी से जेल में तरह तरह की बीमारियां फैलने का ख़तरा बढ़ जाता है, इस पर रौशनी डालते हुए कोयल, जो सेवानिवृत्त प्रोफेसर शोमा सेन की बेटी है, ने भी अपनी मां के हवाले से ऐसी ही बातें साझा कीं थी: ‘‘आख़िरी बार जब मैंने अपनी मां से बात की, उसने मुझे बताया कि न तो उन्हें मास्क, न ही कोई अन्य सुरक्षात्मक उपकरण दिया जा रहा है। वह तीस अन्य लोगों के साथ एक ही सेल में रहती है और वे सभी किसी तरह टेढ़े-मेढ़े सो पाते हैं।’’

तलोजा जेल में बँद भीमा कोरेगांव मामले के नौ कैदी या भायकुला जेल में बंद दो महिला कैदियों के बहाने – जो देश के अग्रणी विद्वानों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में शुमार किये जाते हैं – अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना कुछ अन्याय हमारे इर्दगिर्द पसरा होता है और हम पहचान भी नहीं पाते।

उधर असम से ख़बर आयी है कि विगत आठ माह से जेल में बंद कृषक श्रमिक संग्राम समिति के जुझारू नेता अखिल गोगोई और उनके दो अनन्य सहयोगी बिट्टू सोनोवाल और धरज्या कोंवर, तीनों टेस्ट में कोविड पोजिटिव पाये गये हैं।

गोरखपुर के जनप्रिय डॉक्टर कफ़ील खान जो विगत पांच महीने से अधिक वक्त़ से मथुरा जेल में बंद हैं तथा जिन पर सीएए विरोधी आंदोलन में भाषण देने के मामले में गंभीर धाराएं लगा दी गयी हैं, उनके नाम से एक वीडियो भी जारी हुआ है जिसमें वे बताते हैं कि जेल के अंदर हालात कितने ख़राब हैं और कोविड संक्रमण के चलते अनिवार्य ठहराये गये तमाम निर्देशों को कैसे धता बताया जा रहा है।

तय बात है कि जहां तक स्वास्थ्य के लिए ख़तरों का सवाल है, हम किसी को अलग करके नहीं देख सकते हैं। हर कोई जिसे वहां रखा गया है – भले ही वह विचाराधीन क़ैदी हो या दोषसिद्ध व्यक्ति – उसकी स्वास्थ्य की कोई भी समस्या आती है, तो उसका इंतज़ाम करना जेल प्रशासन का प्रथम कर्तव्य बन जाता है। कोविड 19 के भयानक संक्रामक वायरस से संक्रमण का ख़तरा जब मौजूद हो और अगर इनमें से किसी की तबीयत ज्यादा ख़राब हो जाती है तो यह स्थिति उस व्यक्ति के लिए अतिरिक्त सज़ा साबित हो सकती है।

यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जेलों में क्षमता से अधिक संख्या में बंद क़ैदी, स्वास्थ्य सेवाओं की पहले से लचर व्यवस्था और कोविड संक्रमण का बढ़ता ख़तरा, इस स्थिति को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मार्च माह में दिये गये आदेश पर गंभीरता से अमल क्यों नहीं शुरू हो सका है? याद रहे कि जब कोविड महामारी फैलने लगी थी और इस बीमारी के बेहद संक्रामक होने की बात स्थापित हो चुकी थी, तब आला अदालत ने हस्तक्षेप करके आदेश दिया था कि इस महामारी के दौरान जेलों में बंद क़ैदियों को पैरोल पर रिहा किया जाये ताकि जेलों के अंदर संक्रमण फैलने से रोका जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया था कि ऐसे कैदियों को पैरोल दी जा सकती है जिन्हें सात साल तक की सज़ा हुई है, या वे ऐसे मामलों में बंद हैं जहां अधिकतम सज़ा सात साल हो।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को कागज़ी बाघ में तब्दील कर दिया गया है। दिल्ली की जेल में एक सज़ायाफ़्ता क़ैदी की कोविड से मौत हो चुकी है। क्या सरकारें अपनी शीतनिद्रा से जगेंगी और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की रौशनी में जेलों के अंदर बढ़ती भीड़ की गंभीर समस्या को संबोधित करने के लिए क़दम उठायेंगी

 


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