‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ फ़िल्म पर जनवादी लेखक संघ

जलेस की केंद्रीय कार्यकारिणी की 26 फ़रवरी 2023 की बैठक में पारित प्रस्ताव

हिदी के प्रख्यात कथाकार और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले 2011 में, ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ नामक नाटक लिखा था। कई सालों बाद इस नाटक का संशोधित रूप 2020 में ‘बनास जन’ पत्रिका द्वारा प्रकाशित हुआ। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ। इसी वर्ष 25 जनवरी 2023 को इस नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर लेखकों के बीच तीव्र विवाद भी खड़ा हो गया है। ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ असग़र वजाहत के इसी संशोधित नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित है। इसकी पटकथा इस फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक राजकुमार संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है।

यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता। लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है।

जनवादी लेखक संघ लेखकीय स्वतंत्रता का सदैव पक्षधर रहा है। वह इसमें यक़ीन नहीं करता है कि वह लेखकों को बताये कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और कैसे लिखना चाहिए। वह जो कुछ भी लिखा गया है उसकी आलोचना करने की स्वतंत्रता का भी समर्थन करता है। लेकिन यह प्रश्न ज़रूर उठता है कि इस फ़िल्म की कहानी कितनी भी काल्पनिक क्यों न हो, यदि ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर लेखक और फ़िल्मकार अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल तो जरूर पूछा जायेगा कि ठीक इस समय जब देश पर एक सांप्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिकि संगठन सत्ता में है और जो हिंदुत्व की उसी विचारधारा को मानता है, जो सावरकर और गोडसे की विचारधारा थी, तो इस तरह की फ़िल्म आखिर किस लिए बनायी गयी है जो अपने वस्तुगत सत्व में उनके पक्ष की पैरोकार हो गयी है। दर्शक यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज़ संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही क्यों है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है। इस फ़िल्म ने गोडसे को न केवल गांधी के समकक्ष ला खड़ा किया है बल्कि उसे महान देशभक्त के रूप में स्थापित कर ,गोडसे (और प्रकारांतर से सावरकर) की व्यापक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।

दरअसल, यह पूरी फ़िल्म वस्तुगत रूप में संघ परिवार के हिंदुत्ववादी एजेंडे का समर्थन करती है। यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, साथ ही साथ उन्हें अवमानित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन की गौरवशाली परंपरा को विकृत करने और हिंदुत्ववादी हत्यारे नाथूराम गोडसे को महान देशभक्त और जननायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान की सांप्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा के प्रसार का हथियार बन गयी है। यह महज़ संयोग नहीं है कि विवादास्पद विषय पर फ़िल्म होने के बावजूद संघ परिवार द्वारा इसको लेकर किसी तरह का विरोध नहीं किया गया है। इस फ़िल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है जिसके लिए फ़िल्म के आरंभ में ही वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और बायकाट अभियान के सरगना गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र का आभार प्रकट किया ़गया है। साफ़ है कि फ़िल्म की शूटिंग की इजाज़त पटकथा देखकर ही दी गयी होगी। राजकुमार संतोषी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म निर्माता को सलाह दी है कि यह फ़िल्म स्कूलों और कालेजों में भी दिखायी जानी चाहिए। हिंदू महासभा ने फ़िल्म को कर मुक्त करने की मांग भी की है।

जनवादी लेखक संघ सदैव से सांप्रदायिक फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर सक्रिय रहा है। 2014 से जलेस हिंदुत्ववादी नीतियों और गतिविधियों के विरुद्ध प्रखर रूप से संघर्षरत रहा है। यह फ़िल्म न केवल इस संघर्ष को कमज़ोर करती है वरन जनवादी लेखक संघ के बारे में भ्रम फैलाने में भी सहायक हुई है। यही वजह है कि जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह स्पष्ट करना ज़रूरी समझती है कि ‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ फ़िल्म में व्यक्त किये गये विचारों और इतिहास को हिंदुत्ववादी ताक़तों के पक्ष में विकृत करने की कोशिशों को पूरी तरह अस्वीकार करती है और इस कोशिश की भर्त्सना भी करती है। जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह मानती है कि ऐसे समय में जब देश हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताक़तों के चंगुल में जकड़ा हुआ है उसके विरुद्ध समझौताहीन अनवरत संघर्ष को और तेज़ करने की ज़रूरत है। ऐसे समय उन सभी लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से, जो जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यक़ीन करते हैं, जलेस उम्मीद करता है कि वे उन वैचारिक विभ्रमों से भी संघर्ष करेंगे जो कई बार वैचारिक भटकावों का कारण बन जाते हैं।


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