विश्वविद्यालयों की शैक्षिक स्वायत्ता में राजनीतिक दखलंदाज़ी

नयी दिल्ली : 10 नवंबर 021 : आरएसएस के विद्यार्थी विंग, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की मांग पर बीएचयू प्रशासन ने विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के साथ जो कार्रवाई की है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और जनवादी लेखक संघ उसकी कठोर शब्दों में निंदा करता है।

            9 नवंबर को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग ने उर्दू दिवस के उपलक्ष्य में एक वेबीनार का आयोजन किया था। इस आयोजन के लिए विभाग ने अपने फ़ेसबुक एकाउंट पर जो पोस्टर जारी किया, उस पर उर्दू के महान कवि अल्लामा इक़बाल की तस्वीर लगी हुई थी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के समाचार के अनुसार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन एबीवीपी ने विश्वविद्यालय प्रशासन से शिकायत की कि उर्दू विभाग के पोस्टर पर इक़बाल की तस्वीर है, लेकिन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदनमोहन मालवीय की तस्वीर नहीं है। एबीवीपी के विरोध करते ही विश्वविद्यालय प्रशासन हरकत में आ गया और उसने उर्दू विभाग के अध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद के नाम ‘चेतावनी पत्र’ जारी कर दिया और उनसे स्पष्टीकरण मांगा। साथ ही, एक जांच समिति गठित कर दी । प्रो. अहमद को न केवल माफ़ी मांगनी पड़ी बल्कि यह भी कहना पड़ा कि उनका इरादा किसी को आघात पहुंचाना नहीं था। कला संकाय के डीन ने ट्वीट कर सूचित किया कि इक़बाल की फ़ोटो वाला पोस्टर हटा दिया गया है और उसकी जगह मदनमोहन मालवीय की फ़ोटो के साथ एक नया पोस्टर जारी किया गया।

            एबीवीपी के एतराज़ करते ही जिस तरह बीएचयू प्रशासन ने घुटने टेक दिये, वह बहुत ही अफ़सोसनाक है। अपनी एकेडमिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के बजाय उर्दू विभाग को पोस्टर हटाने के लिए मजबूर करना और जांच बैठाना यह बताता है कि विश्वविद्यालय का प्रशासन किस तरह के लोगों के हाथों में पहुंच चुका है। और यह केवल एक विश्वविद्यालय का अकेला प्रसंग नहीं है। जिस तरह विश्वविद्यालयों की एकेडमिक स्वायत्तता पर हमला किया जा रहा है, जिस तरह के लोग कुलपति जैसे ज़िम्मेदार पदों पर बैठाये जा रहे हैं, वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उच्च शिक्षा के ये संस्थान आगे आने वाले दिनों में और गहरे पतन के गर्त में गिरने वाले हैं। विश्वविद्यालय की स्वायत्तता तभी सुरक्षित रह सकती है जब विश्वविद्यालय के प्रत्येक विभाग को अपनी शैक्षिक गतिविधियां पूरी स्वतंत्रता के साथ करने की छूट हो और उसमें किसी भी तरह की राजनीतिक और प्रशासनिक दख़लंदाज़ी न की जाये।

            विडंबना यह है कि इक़बाल का विरोध करने वाले उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे न केवल उर्दू के महानतम शायरों में से एक है बल्कि उनके काव्य ने भारत के आधुनिक साहित्य को समृद्ध किया है और उसे विश्व साहित्य के समक्ष खड़ा किया है। ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ जैसा महान देशभक्तिपूर्ण गीत लिखने वाले कवि इक़बाल ने अपनी कविताओं द्वारा राम और नानक के प्रति गहरी श्रद्धा व्यक्त की है और भारत की महान सांस्कृतिक परंपरा की लगातार अपने काव्य में अभ्यर्थना की है। उर्दू दिवस पर होने वाले वेबीनार पर इक़बाल की फ़ोटो हटाने की मांग करना यह बताता है कि भारत की सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा के बारे में एबीवीपी जैसे संगठन न केवल अज्ञानी है बल्कि उनके जड़ दिमाग़ों में झूठ का भूसा भर दिया गया है। इक़बाल जिनकी मृत्यु आज़ादी से नौ साल पहले हो गयी थी, उनके बारे में यह कहना कि वे विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे, उनके इसी अज्ञान को दिखाता है। अगर उच्च शिक्षा संस्थानों को ऐसे शिक्षा-विरोधियों के इशारों पर ही चलाया जाना है, तो इन संस्थानों और विश्वविद्यालयों की ज़रूरत ही क्या है! आरएसएस की शाखाएं ही भारत को (अ)ज्ञान समृद्ध करने के लिए पर्याप्त है।

            जनवादी लेखक संघ इक़बाल विरोधी और उर्दू विरोधी इस पूरे घटनाक्रम की निंदा करता है और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय प्रशासन से मांग करता है कि उर्दू विभाग के अध्यक्ष को जारी की गयी चेतावनी वापस ले और जांच समिति को भंग करे। जलेस यह भी मांग करता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अपने राजनीतिक आक़ाओं को खुश करने के लिए विभागों की शैक्षिक स्वायत्तता में दख़लंदाज़ी बंद करे और उन्हें अपनी शैक्षिक गतिविधियां स्वतंत्रता से चलाने दे।

 


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