नयी दिल्ली : 11जून 2021: जनवादी लेखक संघ गुजराती साहित्य अकादमी की पत्रिका, शब्दसृष्टि में प्रकाशित संपादकीय में कथित ‘लिटरेरी नक्सल्स’ पर किये गये हमले की कठोर शब्दों में निंदा करता है।
पत्रिका के जून अंक के संपादकीय में पारुल खखर की बहुचर्चित कविता ‘शववाहिनी गंगा’ का नाम लिये बग़ैर उसे ‘अराजकता’ फैलाने वाली और ‘उत्तेजना में बेतुका आक्रोश’ व्यक्त करनेवाली कविता बताया गया है। इंडियन एक्स्प्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक़, यह संपादकीय कहता है कि ‘यह कविता उन लोगों द्वारा गोली दागने के लिए कंधे की तरह इस्तेमाल की गयी है जो साज़िश में मुब्तिला हैं, जो भारत से नहीं बल्कि कहीं और से प्रतिबद्ध हैं, जो वामपंथी या उदारवादी हैं जिन्हें कोई पूछता नहीं।… ये लोग भारत में अराजकता फैलाना चाहते हैं।… ये हर मोर्चे पर सक्रिय हैं और अपने गंदे इरादों के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी कूद पड़े हैं। इन लिटरेरी नक्सल्स का मक़सद जनता के उस हिस्से को प्रभावित करना है जो अपना दुख और अपनी खुशी इस [कविता] के साथ जोड़कर देख सकते हैं।’
यह बेहद शर्मनाक है कि वस्तुस्थिति का बयान करनेवाली एक कविता को एक साहित्यिक पत्रिका अराजकता फैलाने की साज़िश से जोड़कर देख रही है। सरकारी लापरवाही के कारण होनेवाली बेहिसाब मौतें, इलाज और ऑक्सीजन की कमी से तड़पकर दम तोड़ते लोग, श्मशानों में शवदाह के लिए इंतज़ार करती क़तारें, गंगा में तैरती अनगिनत लाशें, और इस पूरे परिदृश्य में अनुपस्थित केंद्र सरकार—जिनके लिए अराजकता यह नहीं है बल्कि इनका बयान करना अराजकता की निशानी है, वे साहित्य की दुनिया के लोग हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। साहित्य का स्वभाव सत्ता के खि़लाफ़, लोगो के पक्ष में खड़ा रहना है। चर्चित कविता ने यही काम किया है जिसे उक्त संपादकीय ‘उत्तेजना में’ व्यक्त किया गया ‘बेतुका आक्रोश’ बता रहा है। संपादकीय-लेखक को, जो गुजराती साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पंड्या हैं, इस बात का इल्म ही नहीं कि इस कसौटी पर उक्त कविता को ही नहीं, साहित्य मात्र के उत्तमांश को ख़ारिज किया जा सकता है। ऐसा लेखन करनेवालों को ‘लिटरेरी नक्सल्स’ बता कर उन्होंने अपनी राजनीति का ही निर्लज्ज प्रदर्शन नहीं किया है, अपनी साहित्यिक समझ के दिवालियेपन को भी उजागर कर दिया है।
जनवादी लेखक संघ एक लोकप्रिय कविता पर किये गये इस हमले की घोर भर्त्सना करता है और लेखकों-कवियों से अपील करता है कि ऐसे हमलावरों का हर स्तर पर पूर्ण बहिष्कार करें। गुजरात के लेखकों को गुजराती साहित्य अकादमी पर प्रदर्शन करके इस संपादकीय को वापस लेने की मांग करनी चाहिए।