अलविदा, सूरजपाल चौहान!

नयी दिल्ली : 16 जून : हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर, सूरजपाल चौहान (20 अप्रैल 1955 – 15 जून 2021) का निधन अस्मितामूलक लेखन की बड़ी क्षति है। सूरजपाल जी का जन्म अलीगढ़ ज़िले के फुसावली गांव में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता उन्हें दिल्ली ले आये थे। दिल्ली में ही उनकी शिक्षा हुई। वे भारत सरकार के उपक्रम स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया में मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे और नोयडा में रह रहे थे। पिछले कुछ वर्षों से वे बीमार थे और उन्हें नियमित रूप से डायलिसिस पर जाना पड़ता था।

सूरजपाल चौहान ज़ोर देकर कहा करते थे कि दलित साहित्य की मुख्य विधा कविता तथा कहानी है। आत्मकथा का स्थान इसके बाद आता है। आत्मकथा को दलित लेखन की मुख्य विधा बताने वालों की मंशा ठीक नहीं, ऐसा उनका मानना था। उनके लेखन की शुरुआत कविता से हुई। उनका पहला काव्य संग्रह, प्रयास 1994 में आया। बाद में आये काव्य संग्रह हैं :  क्यों विश्वास करूं, कब होगी वह भोर और वह दिन ज़रूर आयेगा। उन्होंने बच्चों के लिए भी गीत लिखे। उनके बाल कविता संग्रहों के नाम हैं : बच्चे सच्चे क़िस्से, और मधुर बालगीत। पारंपरिक छंदों में उनका हाथ सधा था। उनके लिखे दोहों का संग्रह, जान सको तो जान शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम में दलितों की भागीदारी प्रमाणित करने के लिए उन्होंने, वीर योद्धा मातादीन जीवनी लिखी। उनकी लघु कहानियों का संग्रह, धोखा नाम से छपा था। उनके दो कहानी संग्रह आये : हैरी कब आयेगा और नया ब्राह्मण। इन सब कृतियों के बावजूद पाठकों के बीच उनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार उनकी आत्मकथा, तिरस्कृत और संतप्त है। इन दिनों वे आत्मकथा का तीसरा भाग लिख रहे थे। अपने जीवन के शुरुआती वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्धता रखने और मंचीय कविता लिखने वाले सूरजपाल जी को दलित साहित्य की ओर ओमप्रकाश वाल्मीकि (1950-2013) ने उन्मुख किया था। उनके निधन से हिंदी की पहली पीढ़ी के दलित लेखकों का एक मज़बूत स्तंभ गिर गया है।

जनवादी लेखक संघ उन्हें भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित करता है|


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