नयी दिल्ली, 25 जनवरी : हमारी भाषा की अप्रतिम गद्यकार कृष्णा सोबती का इंतकाल साहित्यप्रेमियों और लेखकों को शोक-संतप्त कर देने वाली सूचना है. वे दिल्ली के सफदरजंग स्थित आर्षलोक अस्पताल में भर्ती थीं जहां आज सुबह 8-30 बजे उन्होंने आख़िरी साँसें लीं। कृष्णा जी लंबे समय से स्वास्थ्य-संबंधी समस्याओं से जूझ रही थीं, हालांकि मानसिक रूप से वे पूरी तरह सजग थीं और आख़िरी दिनों तक उनकी सृजनात्मकता अबाध थी। इसी साल 18 फ़रवरी को वे जीवन के 94 वर्ष पूरे कर लेतीं।
हिंदी को ‘ज़िंदगीनामा’, ‘दिलो-दानिश’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘समय सरगम’ जैसे बड़े उपन्यास, ‘मित्रो मरजानी’, ‘ऐ लड़की’, ‘बादलों के घेरे’ जैसी कहानियां और तीन खंडों में ‘हम हशमत’ जैसा संस्मरण-रेखाचित्र-संग्रह देनेवाली कृष्णा जी का क़द अभी के हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में निर्विवाद रूप से सबसे ऊंचा था। उनकी कृतियों के अनुवाद अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में हुए और सराहे गए. साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ सम्मान, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता, हिंदी अकादमी दिल्ली के शलाका सम्मान आदि से सम्मानित कृष्णा जी 93 वर्ष की अवस्था में भी रचनारत थीं और हाल-हाल तक ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ तथा ‘मार्फत दिल्ली’ जैसी कृतियाँ हिंदी जगत को देती रहीं, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं।
कृष्णा सोबती लेखन के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर अपनी रायज़नी और पहलक़दमी के लिए भी जानी जाती रही हैं. मौजूदा भाजपा निज़ाम की असहिष्णुता के ख़िलाफ़ जब-जब लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने आवाज़ उठायी, कृष्णा जी की आवाज़ उसमें सबसे मुखर रही। प्रो. कलबुर्गी की हत्या के बाद शासक दल की क्रूरता और अपनी स्वायत्तता का समर्पण करती साहित्य अकादमी की चुप्पी का उन्होंने पुरज़ाेर विरोध किया और अकादमी की महत्तर सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया. सरकार के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के कार्यक्रमों में वे अपनी पहिया-कुर्सी पर बैठकर शामिल भी होती रहीं। निस्संदेह, उनके लेखन के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व भी अलग-अलग पीढ़ियों के समस्त समकालीनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है.
ऐसी कृष्णा जी के निधन पर जनवादी लेखक संघ शोक-संतप्त है. हम उन्हें भारी मन से अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।