कुंवर नारायण नहीं रहे

‘इन गलियों से

बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था

और अगर

दाग ही लगना था तो फिर

      कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं

आत्मा पर

किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता

      जो कभी न भरता’

भारतीय साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखनेवाले श्री कुंवर नारायण नहीं रहे. वे नब्बे वर्ष के थे. लम्बी बीमारी से जूझने के बाद आज दिल्ली में उनका निधन हो गया.

कुंवर जी ने हिन्दी को अविस्मरणीय कविताएँ तो दीं ही, अपनी फिल्म समीक्षाओं, संस्मरणों और आलोचनात्मक लेखों के लिए भी वे हमेशा याद रखे जायेंगे. चक्रव्यूह, ‘आत्मजयी’, ‘परिवेश : हम-तुम’, ‘आमने-सामने’. ‘कोई दूसरा नहीं’ और ‘इन दिनों’ उनकी प्रसिद्ध काव्य-पुस्तकें हैं. ‘आकारों के आसपास’ (कहानी-संग्रह) और ‘रुख़’ (समीक्षात्मक लेखों और संस्मरणों का संग्रह) के अलावा उनकी चार गद्य-पुस्तकें प्रकाशित हैं. ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता और पद्मभूषण के अलावा उन्हें देश-विदेश के अनेक सम्मान प्राप्त हुए. उनका जाना हमारी भाषा के एक ऐसे रचनाकार का जाना है जिसकी सहजता, सजग दृष्टि और गहरे सरोकार आगे की पीढ़ियों को दिशा देते रहे हैं. उनका रचनात्मक लेखन कलात्मकता के मानक भी रचता है और एक दार्शनिक-विचारक की निगाह से अपने समय की सबसे संवेदनशील तस्वीर भी दिखाता है.

हम जनवादी लेखक संघ की ओर से श्री कुंवर नारायण को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.


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