जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. कर रहा था तो पहली बार ‘समस्या नाटक’ जैसी नयी श्रेणी से परिचय हुआ। बाद में मैंने जब हिंदी में एम. ए. किया तो उपन्यास की आलोचना में ‘आंचलिक उपन्यास’ जैसी श्रेणी सामने आयी। नमिता सिंह का उपन्यास, लेडीज़ क्लब पढ़ते हुए मुझे लगा कि यह उपन्यास एक ‘समस्या उपन्यास’ है, उपन्यास की अब तक की श्रेणियों में यह अंटता नहीं। इस उपन्यास में न तो कोई केंद्रीय पात्र है जिसे आप इसका कथा नायक या नायिका मान कर उसका जीवनवृत्त या उसके माध्यम से अपने समय या समाज की वास्तविकता तलाश करें, न इसमें कोई पारंपरिक प्लाट है जिसकी संश्लिष्टता में डूब कर आप अर्थ की तहें विश्लेषित करें। इसका कथानायक ख़ुद ‘क्लब’ ही है जैसे आंचलिक उपन्यास में कथा नायक व्यक्ति न हो कर एक ‘अंचल’ विशेष होता था, मैला आंचल में यही हुआ था। नमिता जी के उपन्यास में आज की सबसे भयावह सामाजिक सचाई, सांप्रदायिकता के बढ़ते कैंसर की सचाई, क्लब की सदस्या लेडीज़ के माध्यम से सामने लायी गयी है।
उपन्यास की शुरुआत में ‘जनाना पार्क से लेकर लेडीज़ क्लब तक’ शीर्षक अध्याय में हमारा परिचय सबसे पहले शहनाज़ आपा से होता है, ‘पिछले तीन साल से शहनाज़ आपा क्लब की सेक्रेटरी हैं।’ पहले पृष्ठ पर हमें बताया जाता है कि उनका सवेरे सवेरे फ़ोन आता है जब उपन्यास की वाचिका, राधा अपने कार्य पर जाने से पहले की दिनचर्या में मशीन की तरह जुटी हुई है, अपने पति अतुल के दैनिकक्रम में ‘दनादन एक के बाद एक’ चाय की फ़रमाइश’, फिर प्रेशर बनाने के लिए ‘नीबू पानी’ की फ़रमाइश पूरी करना, नाश्ता, लंच आदि का इंतज़ाम करके तैयार होना, मिसरानी, फिर नूरजहां नामक ‘कामवाली’ से काम करवाना आदि। वाचिका की व्यस्तता ऐसी है कि उसे ‘सवेरे आधा घंटा निकालना मुश्किल है अपने लिए।’ यहां बीच बीच में आजकल स्त्रीविमर्श में उठ रहे सवाल बहुत ही स्वाभाविक ढंग से संकेतित कर दिये गये हैं। इन्हीं वर्णनों के बीच बीच ‘स्ट्रीम आफ़ कांशसनैस’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ और महिला पात्र चित्रित होते जाते हैं। शहनाज़ आपा के फ़ोन के अलावा शुरू में उनके बारे में बहुत अधिक या पूरी जानकारी हमें नहीं मिलती। काम करने के दौरान ही का कारण बताया जाता है कि लेडीज़ क्लब 8 मार्च को महिला दिवस नहीं मना पायेगा क्योंकि उस दिन मुहर्रम पड़ रहा है, ‘अब शिया मेंबरान के लिए तो मुश्किल की बात ठहरी’। हालांकि शिया मेंबरान माइनारिटी में हैं मगर उनका ख़याल रखा गया है। इसी से वाचिका ‘माइनारिटी’ की जे़हनियत पर रोशनी डालने के लिए कुछ उपकथाएं इसी वाले अध्याय में डाल देती है। एक उपकथा जावेद भाई और सबीला भाभी की बेटी शकीला की एक हिंदू सहपाठी जोगेंद्र चौधरी के साथ प्रेम विवाह की है। यह उपकथा इस्मत चुग़ताई की एक कहानी, ‘मुक़द्दस फर्ज़’ (‘पवित्र कर्तव्य’) की याद दिलाती है जिसमें समीना और तुषार त्रिवेदी प्रेमबंधन में बंधकर विवाह कर लेते हैं और इसी प्रकार के विरोध का सामना करते हैं जैसा कि नमिता जी ने शकीला के विवाह को लेकर दर्शाया है।
इसके बाद एक और लड़की हुमैरा की शादी न हो पाने की उपकथा आती है जिसमें मुस्लिम समाज के भीतर की जातिप्रथा के यथार्थ को पूरी संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है। उपन्यास की वाचिका स्पष्ट तौर से टिप्पणी करती है। मुस्लिम परिवार के लड़के से हुमैरा की शादी इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि हुमैरा सुन्नी है और लड़का शिया परिवार का। हुमैरा की शादी करवाने में नाकाम होती वाचिका इस पर दुखी होकर टिप्पणी करती है:
“मैं भूल गयी थी कि हमारा हिंदुस्तानी समाज जाति-दर-जाति सैकड़ों ख़ानों में बंटा है कि इसकी जड़ें दूर दूर तक फैल गयी हैं। ज़मीन के नीचे गहरी धंसी ये जड़ें उन बस्तियों और कुनबों तक जा पहुंची हैं, जहां इन विभाजन रेखाओं का अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए था। धर्म और जाति के ये विभाजन के दंश समाज की हर धड़कन में मौजूद हैं।“ (पृ. 17)
नमिता जी के उपन्यास का मूल संवेदनात्मक उद्देश्य भारतीय समाज में व्याप्त इसी कैंसर को उद्घाटित करना है। इसी अर्थ में यह एक ‘समस्या उपन्यास’ है। इस जातिवाद और सांप्रदायिकता के कैंसर ने भारतीय समाज के विकास में कितना नकारात्मक रोल अदा किया है, इसकी पीड़ा वाचिका को है। उपन्यास के पहले अध्याय के अंत तक यह प्रक्रिया अपनी पूरी संश्लिष्टता के साथ दिखायी गयी है। इस अध्याय का तानाबाना मुख्यतः यादों के सहारे बुना गया है शुरू वह अपने वर्तमान से होता है, और अंत बचपन के दिनों के लखनऊ के ज़नाना पार्क की बदली हुई तस्वीर से होता है। यह तस्वीर आज के भारत की है जिसमें पूंजीवादी विकास के माडल ने क्या क्या विकृतियां पैदा कर दी हैं, यह वाचिका की आंखों से ओझल नहीं होता। यह अध्याय एक तरह से यूनिवर्सिटी के लेडीज़ क्लब की पहली सदस्या, राधा, यानी ख़ुद वाचिका से शुरू होता है।
दूसरा अध्याय शहनाज़ आपा के माध्यम से सामाजिक यथार्थ की तस्वीर सामने रखने के तौर पर पाठक के सामने आता है। ‘वे सबसे सीनियर हैं हमारे क्लब में।’ उनका किरदार एक सेक्युलर, तरक़्क़ीपसंद जुझारू महिला के रूप में चित्रित किया गया है। यूनिवर्सिटी में फ़िरक़ावाराना कुव्वतों के फैलाव और उनके फ़तवों के साथ महिलाओं का नाटक में भाग लेने पर पाबंदी या उनके कपड़ों के चुनाव पर पाबंदी का वाक़या हो, वे प्रतिरोध आयोजित करती हैं। “आज लड़कियां स्टेज पर नहीं गायेंगी, ड्रामा क्लब में नहीं जायेंगी। लड़कियां स्कूटर नहीं चलायेंगी। लड़कियां कपड़े हमारी मर्ज़ी से पहनेंगी’। कोई अंत है इन फ़तवों का।“ यह शहनाज़ आपा का पवित्र गुस्सा है जो उनके प्रतिरोध की शक्ल में आता है। उनका तर्कसंगत एप्रोच विजयी होता है। उनकी विजय से ‘यूनिवर्सिटी राष्ट्रीय शर्म से बची’। वाचिका की वे रोल माडल हैं।
इसी अध्याय में हमें लेडीज़ क्लब की स्थापना में जिन सदस्यों की भूमिका थी उनके बारे में भी जानकारी दी जाती है। लीला गुप्ता और शाहिदा जमाल इसकी पुरानी सदस्य हैं जिनका रचनात्मक किरदार हमारे सामने आता है। इसके बाद रश्मि खन्ना, वसीमा अली के बारे में थोड़ी जानकारी मिलती है। इसी अध्याय में यह भी बताया जाता है कि किस तरह लीला गुप्ता सांप्रदायिक दंगों के डर से कैंपस छोड़कर अपने मकान में चली गयी हैं। राम मंदिर के अभियान के दौर में ध्रुवीकरण की तसवीर इसी अध्याय में दी गयी है जो लीला गुप्ता के डर की तह में है।
इसके बाद के अध्याय में एक अन्य सदस्या, विमलेश बहन का परिचय कराया गया है। वे यूनिवर्सिटी से ताल्लुक़ नहीं रखतीं, उनके पति वकील हैं। उन्होंने एक दंगे के दौरान मुस्लिम बरातियों से भरी बस पर पथराव और उससे चोटिल लड़कियों को बचाने और दंगाइयों को ललकारने व उनके खि़लाफ़ जमकर खड़े होने का साहसिक मानवीय काम किया था जिसकी सराहना के रूप में उन्हें नेशनल व लोकल प्रतिष्ठा तो हासिल हुई ही, अनेक इनाम सम्मान मिले, और लेडीज़ क्लब ने भी सदस्या बनाया। उसी घटना के माध्यम से वाचिका ने इस अध्याय में दंगों का भी चरित्र और उसके पीछे सक्रिय तत्वों का खुलासा भी किया है।
उपन्यास के बाद के अध्याय भी लेडीज क्लब की सदस्याओं पर आधारित हैं, एक या दो शीर्षक अलग क़िस्म के हैं जो सांप्रदायिकता की समस्या को गहराई से छूते हैं। मसलन, उपन्यास का एक अध्याय है: ‘उस बरस तरबूज़ खूब फला’। यह अध्याय किसी सदस्या से जुड़ा हुआ न हो कर शहर में हिंदुत्ववादी तत्वों की वीभत्स कार्रवाइयों का ख़ाक़ा पेश करता है जिन्होंने एक मुस्लिम परिवार को जो अपने बीमार बच्चे के इलाज के लिए जा रहा था अपनी खूंखार नफ़रत का शिकार बना डाला और खून को छुपाने के लिए वहां तरबूज़ काटकर बिखेर दिये। सांप्रदायिक मानसिकता किस तरह इंसानों को जानवर बना देती है, यही इस अध्याय में दिखाया गया है।
इसी तरह उपन्यास के आख़िरी अध्याय का शीर्षक, ‘मधुबन से गोरखपुर तक’ भी किसी सदस्या के नाम से नहीं है लेकिन उसके केंद्र में एक तो, हिंदुस्तान के मध्यवर्ग का बदलता सामाजिक यथार्थ और दूसरे, अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना की असलियत चित्रित है। मध्यवर्ग में संपन्नता आयी है, उनमें से अधिकतर के बच्चे विदेश बस गये हैं, बूढ़े मां बाप शहरों में अकेलेपन के माहौल में जी रहे हैं। यह यथार्थ हमीदा आपा के माध्यम से अंकित किया गया है जो दस साल पहले फ़ारसी भाषा विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर हो गयीं। पति का देहांत हो चुका है और ‘उनके दोनों बेटे अमरीका में हैं।’ ऐसी हालत बहुत से शहरी मध्यवर्गीय नागरिकों की है। ‘हिंदुस्तान में हालात कितने बदल गये हैं’, यही इस अध्याय का सारतत्व है।
कुल मिला कर नमिताजी का यह उपन्यास इसी बदले हुए यथार्थ का जीता जागता चित्र पूरी विश्वसनीयता के साथ पेश करता है। हिंदी साहित्य को ऐसे आलोचनात्मक यथार्थवादी उपन्यासों की बहुत ज़रूरत है। हमारा समाज बहुत से मानवविरोधी दक़ियानूसी विचारसरणियों के कैंसर से पीड़ित है जिनका फ़ायदा उठाकर ऐसी ही जनविरोधी राजनीति सत्ता पर क़ाबिज़ हो कर समाज को आगे ले जाने के बजाय पीछे धकेलने में कामयाब हो रही है। ऐसे उपन्यास उसकी तसवीर समाज के सामने रखकर अपनी रचनात्मक सामाजिक ज़िम्मेदारी भी निभाते हैं।
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