नयी दिल्ली : 23 फ़रवरी 023 : कवि और अनुवादक सुरेश सलिल के न रहने से हिंदी ने विश्व साहित्य से परिचय कराने वाले एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक व्यक्तित्व को खो दिया है। पिछले जून महीने में वे 80 साल के हुए थे। लगभग 60 वर्षों की साहित्यिक सक्रियता में उन्होंने बिना किसी प्रतिदान के हिंदी को जितना कुछ दिया, वह अपने में एक मिसाल है।
1990 में सलिल जी का कविता संग्रह ‘खुले में खड़े होकर’ प्रकाशित होकर चर्चित हुआ था और 2004 में उनका ग़ज़ल संग्रह ‘मेरा ठिकाना क्या पूछो हो’ सामने आया। उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण अनुवाद किये जिनमें ‘मकदूनिया की कविताएं’, ‘अपनी जु़बान में : विश्व की विभिन्न भाषाओं की कहानियां’, ‘मध्यवर्ग का शोकगीत : जर्मन कवि हान्स माग्रुस एन्त्सेंसबर्गर की कविताएं, ‘दुनिया का सबसे गहरा महासागर : चेक कवि मिरोस्लाव होलुब की कविताएं’, ‘रोशनी की खिड़कियां : इकतीस भाषाओं के एक सौ बारह कवि’, ‘देखेंगे उजले दिन : नाज़िम हिकमत की कविताएं’ आदि स्मरणीय हैं। उन्होंने चार खंडों में ‘गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली’ का संपादन किया। साथ ही, ‘कविता सदी’, ‘कारवाने ग़ज़ल’, ‘पाब्लो नेरुदा : प्रेम कविताएं’, ‘वली की सौ ग़ज़लें’, ‘नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएं’ का संपादन और ‘चांद’ के प्रसिद्ध ‘फांसी अंक’ का पुनर्प्रकाशन भी उन्होंने किया।
सुरेश सलिल का निधन हिंदी के साहित्यिक समाज को शोकाकुल कर देने वाली ख़बर है। जनवादी लेखक संघ उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।