विनोद कुमार शुक्ल और उनके प्रकाशक

 

नयी दिल्ली : 13 मार्च 2022 : पिछले दिनों कवि और उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल ने प्रकाशकों के साथ अपने अनुबंध और रॉयल्टी भुगतान को लेकर अपने ठगे जाने का जो दुख साझा किया, वह विचलित करनेवाला है। जनवादी लेखक संघ वरिष्ठ लेखक के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करता है और इस मुद्दे पर उनके प्रकाशकों की ओर से पूरी पारदर्शिता की मांग करता है। एक प्रकाशन गृह ने इस संबंध में विज्ञप्ति जारी कर अपना पक्ष सामने रखा है और विनोद जी के साथ संवाद करके स्थितियां स्पष्ट करने का आश्वासन भी दिया है, लेकिन तथ्यों को पूरी तरह से प्रकाश में लाये जाने की ज़रूरत है। अगर विनोद जी की इच्छा के बग़ैर उनकी किताबों के संस्करण निकाले जा रहे हैं और किन्डल तथा ई-बुक संस्करणों को बिना किसी अनुबंध के बाज़ार में बेचा जा रहा है, तो यह चिंताजनक और निंदनीय है। अगर ऐसा नहीं है तो यह बात भी साफ़ होनी चाहिए। लेखक और प्रकाशक के बीच एक पारदर्शी पेशेवर संबंध ही विवादों का हल है।

यह अवसर लेखक-प्रकाशक-संबंधों पर नये सिरे से बात करने का भी है। जनवादी लेखक संघ याद दिलाना चाहता है कि उसने ऐसी कोशिश पहले की है। 1988 में लेखक, प्रकाशक और पाठक का एक त्रिपक्षीय संवाद आयोजित करने के विफल प्रयास का अनुभव जलेस के लिए बहुत हताशाजनक था। लगभग डेढ़ सौ लोगों को पत्र लिखकर इसके संबंध में राय मांगी गयी थी और बड़ी तैयारी के साथ रघुवीर सहाय की अध्यक्षता में दिल्ली स्थित आईसीएचआर भवन के एक कक्ष में सभा आहूत की गयी थी। यह दुखद था कि संगठन के दो-चार आयोजक-लेखक साथियों के अलावा उसमें सिर्फ़ रघुवीर सहाय पहुंचे। न लेखक आये, न प्रकाशक। कुछ पाठक, अलबत्ता, पहुंचे थे। सभा नहीं हो पायी, बावजूद इसके कि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर दूरदर्शन तक के संवाददाता उसमें आमंत्रित थे।

यह अवसर इस बात को ज़ोर देकर कहने का भी है कि लेखक अगर अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए स्वयं जागरूक नहीं रहेंगे तो इस तरह की समस्याएं आती रहेंगी। अनुबंध पत्र पर दस्तखत करते हुए उसकी शर्तों को ठीक से पढ़ना, उनके संबंध में प्रकाशक से खुलकर बात करना और आगे उन शर्तों का उल्लंघन होने की स्थिति में क़ानून की मदद लेना—ये ऐसे काम हैं जिन्हें लेखक ही अंजाम दे सकता है। बौद्धिक संपदा के अपहरण के मामले में क़ानून बहुत ही सख्त हैं। उसमें ग़ैर-जमानती धाराओं का प्रावधान है। अगर हिंदी के लेखक और लेखक संगठन राज़ी हों तो मिलजुलकर इस संबंध में एक कार्यशाला की जा सकती है जिसमें स्वत्वाधिकार से संबंधित क़ानूनी प्रावधानों से लेखकों और प्रकाशकों को पूरी तरह से अवगत कराया जा सके और अनुबंध पत्र का एक मानक प्रस्तुत किया जा सके। उम्मीद की जा सकती है कि बदले हुए हालात में इस तरह की कार्यशाला का अनुभव पहले की तरह निराशाजनक नहीं रहेगा।

यह दुखद है कि कुछ लेखकों ने इस प्रकरण को लेखक संगठनों की लानत-मलामत करने के अवसर के रूप में देखा है। वे यह भूल रहे हैं कि लेखक संगठन प्राथमिक तौर पर ट्रेड यूनियन निकाय नहीं, सांस्कृतिक हस्तक्षेप के मंच रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि लेखक के पेशेवर हितों की रक्षा उनकी कार्यसूची में है ही नहीं, पर उसे ही उनका प्राथमिक काम मानकर उनके नकारेपन की बात करना एक संकीर्ण नज़रिये का सूचक है।


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