और अब प्रो. शमीम हनफ़ी (17 नवंबर1938-6 मई 021)

नयी दिल्ली : 7 मई : प्रो. शमीम हनफ़ी साहब दो दिन पहले डीआरडीओ के नवनिर्मित कोविड सेंटर में भरती हुए थे जहां कल उनका इंतिक़ाल हो गया। वे 82 वर्ष के थे। जनवादी लेखक संघ उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए उन्हें ख़िराजे अक़ीदत पेश करता है।

उर्दू के नामचीन नक्क़ाद हनफ़ी साहब का जन्म सुल्तानपुर में हुआ था और उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और फिर जामिया मिलिया इस्लामिया में उन्होंने अध्यापन किया। जामिया में ही सेवानिवृत्ति के बाद वे उर्दू के प्रोफ़ेसर एमेरिटस थे।

उर्दू की साहित्यिक आलोचना में हनफ़ी साहब का क़द बहुत ऊंचा रहा है। ‘जदीदियत की फ़लसफ़ियाना असास’, ‘नयी शेरी रवायत’, ‘उर्दू कल्चर और तक़सीम की रवायत’, ‘मंटो हक़ीक़त से अफ़साने तक’, ‘ग़ालिब की तख़्लीक़ी हिस्सियत’, ‘ग़ज़ल का नया मंज़रनामा’ आदि उनकी मशहूर किताबें हैं। वे अच्छे शायर और ड्रामानिगार भी थे। ‘आख़िरी पहर की दस्तक’ उनकी शायरी का मज्मूआ है। उनके लिखे नाटकों में ‘मिट्टी का बुलावा’, ‘बाज़ार में नींद’ और ‘मुझे घर याद आता है’ प्रमुख हैं।

शमीम हनफ़ी साहब का निधन उर्दू-हिंदी की साझी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है। हम एक बार फिर उनकी स्मृति को सादर नमन करते हैं।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *