कथाकार मंज़ूर एहतेशाम

नयी दिल्‍ली : 26 अप्रैल : चर्चाओं से दूर रहकर निरंतर लेखन करनेवाले, अपनी तरह के अनोखे कथाकार मंज़ूर एहतेशाम (3अप्रैल1948-26अप्रैल2021) नहीं रहे. उनका जाना हिंदी जगत की बहुत बड़ी क्षति है.

भोपाल निवासी मंज़ूर एहतेशाम सत्तर के दशक में एक बहुत संभावनाशाली कथाकार के रूप में उभरे और अस्सी के दशक में ‘सूखा बरगद’ उपन्यास के प्रकाशन के साथ हिंदी के बड़े कथाकारों में शुमार किये जाने लगे. ‘सूखा बरगद’ के अलावा ‘कुछ दिन और’, ‘दास्तान-ए-लापता’, ‘बशारत मंज़िल’, ‘पहर ढलते’ उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं. उनकी कहानियां भी बहुचर्चित रहीं जो ‘रमज़ान में मौत’, ‘तस्बीह’, ‘तमाशा तथा अन्य कहानियां’ शीर्षक कहानी-संग्रहों में हैं. आज़ाद भारत का मुस्लिम जीवन अपने संकटों, अंतर्विरोधों, सीमाओं और संभावनाओं के साथ अत्यंत प्रामाणिक रूप में उनकी कहानियों और उपन्यासों में चित्रित है.

अनघ शर्मा को दिये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था: ‘बरगद का सूख जाना, मुरदार हो जाना या मर जाना, ये तो संभव होता नहीं है. भले ही आप उसे नया बरगद कहेंगे, लेकिन वह बरगद की ही पीढ़ी को आगे चलायेगा. और बरगद से यहां मतलब ज़िंदगी है. तो अगर एक तौर-तरीक़ा, एक सिलसिला गड़बड़ होता है तो हमें कोशिश भी करनी चाहिए. मुझे तो यक़ीन है, जीवन में आस्था है मेरी. सारे उलझावों के बाद भी मैं ये सोचता हूं कि हमको उनसे लड़ना चाहिए. कुछ बेहतर होगा.’

संघर्ष और उम्मीद के ऐसे कथाकार के इंतकाल से हिंदी की दुनिया शोक-संतप्त है. जनवादी लेखक संघ मंज़ूर एहतेशाम को भरे दिल से ख़िराजे अक़ीदत पेश करता है.


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