मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी नहीं रहे

मशहूर अफ़सानानिगार और पत्रकार मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी कल नहीं रहे। कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया।

1963 में आरा में जन्मे ज़ौक़ी साहब उन बहुत कम लेखकों में से थे जो हिंदी और उर्दू में समान अधिकार के साथ लिखते रहे हैं। उनकी हिंदी-उर्दू मिलाकर तीस के लगभग किताबें प्रकाशित हैं—कई कहानी-संग्रह, अनेक उपन्यास और संस्मरणात्मक तथा वैचारिक गद्य की किताबें। ‘आतिश-ए-रफ़्ता का सुराग़’, ‘बयान’, ‘एक अनजाने खौफ़ की रिहर्सल’, ‘ले सांस भी आहिस्ता’, ‘लैन्डस्केप के घोड़े’, ‘इमाम बुखारी का नैपकिन’, ‘फ्रिज़ में औरत’, ‘बाजार की एक रात’, ‘सुनामी में विजेता’—ये उनकी कुछ चर्चित कृतियां हैं।

2019 में नया पथ के लिए उन्होंने सहर्ष अपनी कहानी दी थी जो ‘आततायी सत्ता और प्रतिरोध’ पर केंद्रित जुलाई-दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुई—‘ग्लेशियर टूट रहे थे और मैं ख्वाब की ज़मीन पर चल रहा था’। कहानी एक ऐसे जादूगर के बारे में है जिसके एक इशारे पर गांव के गांव जल जाते हैं, एक इशारे पर लोगों की जेबों से नोट और सिक्के ग़ायब हो जाते हैं। उसके साथ भक्तों का एक हुजूम है और ‘किसी में भी लुटने और ठगे जाने के बावजूद यह हिम्मत नहीं कि जादूगर के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ भी ज़बान पर ला सके।’

हमारे समय का सांप्रदायिक फ़ासीवादी उभार उनके इधर के लेखन का केंद्रीय सरोकार बना रहा।

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी का जाना हिंदी-उर्दू की साझी दुनिया के लिए एक बड़ा नुक़सान है। जनवादी लेखक संघ भरे दिल से उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करता है।


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