जनवादी लेखक संघ का नौवां राष्ट्रीय सम्मेलन : संक्षिप्त रिपोर्ट

जनवादी लेखक संघ का नौवां राष्ट्रीय सम्मेलन

संक्षिप्त रिपोर्ट

धनबाद (झारखंड) में जनवादी लेखक संघ का नौवां राष्ट्रीय सम्मेलन 27-28 जनवरी को स्थानीय न्यू टाउन हॉल में बनाये गये ‘दूधनाथ सिंह नगर’ में संपन्न हुआ। यह सम्मेलन मुक्तिबोध और त्रिलोचन की जन्मशती को समर्पित था। 27 तारीख़ को निर्धारित समय से एक घंटे की देरी से 12 बजे शुरू हुए उद्घाटन सत्र की शुरुआत मुक्तिबोध और त्रिलोचन के साथ-साथ हाल में दिवंगत हुए जलेस अध्यक्ष दूधनाथ सिंह, कार्यकारी अध्यक्ष जुबैर रज़वी और उपाध्यक्ष मुद्राराक्षस तथा आफ़ाक अहमद को याद करने के साथ हुई। महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने इन सभी की याद में एक मिनट का मौन रखवाने के बाद मंच पर उद्घाटनकर्ता, मुख्य अतिथि और अध्यक्ष-मंडल को आमंत्रित किया। महासचिव ने संचालन संजीवकुमार, उपमहासचिव को सौंपा।

सम्मेलन का उद्घाटन वक्तव्य देते हुए प्रतिरोध की साहसिक पत्रकारिता के उदाहरण, ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने अपनी बात सम्मेलन की थीम ‘संस्कृति का रणक्षेत्रः चुनौतियां और संघर्ष’ पर ही केंद्रित रखी। उन्होंने कहा कि संघ परिवार पर आप कम-से-कम अपना एजेंडा छुपाने का आरोप नहीं लगा सकते। सांस्कृतिक क्षेत्र पर हमला शुरू से ही आरएसएस के एजेंडे पर रहा है। आज स्थिति यह है कि 200 साल के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष, 70 सालों की आज़ादी और ब्राह्मणवाद-विरोधी संघर्ष से हमने जो कुछ हासिल किया है, उसे बचाने की रक्षात्मक लड़ाई में उतरे हुए हैं। उन्होंने पिछले साढ़े तीन सालों के परिदृश्य को बहुत विस्तार से रखते हुए बताया कि 2014 के संसदीय चुनाव में जीत हासिल करना भर उनका मक़सद नहीं था, वे तो इस संवैधानिक रास्ते के इस्तेमाल से संविधान पर ही हमला करके उसे नष्ट कर रहे हैं। देश का न्यायिक ढांचा, चुनाव आयोग, आज़ाद ख़याल के केंद्र, देश के विश्वविद्यालय – कुछ भी महफ़ूज़ नहीं रह गया है। मीडिया के ख़िलाफ़ ‘गोदी मीडिया’ को खड़ा कर दिया गया है। मीडिया को दबाव में लेने के साथ-साथ लेखक-कलाकार सांप्रदायिक ताक़तों के निशाने पर हैं। हर तरफ़ पागलपन का जो नंगा नाच दिख रहा है, वह दरअसल कठपुतली का खेल है जिसकी डोर किसी और के हाथ में है। हिंसाइयों, हत्यारों और लंपटों की अनदेखी हो रही है और उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर रावण से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा बताया जा रहा है। इतिहास के विरूपीकरण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि कोई मैच्योर देश अपने इतिहास को संभाल कर ही आगे बढ़ सकता है, उसे बदलने की कोशिश करके नहीं। ऐसा करना भविष्य पर हमला है।

अपने भाषण के अंत में सिद्धार्थ वरदराजन ने तीन बातें ज़ोर देकर कहीं, जो वहां मौजूद 250 से अधिक लेखकों के लिए उनके स्पष्ट संदेश के रूप में थीं: पहली बात, निडर बनिए। दूसरी, अभिव्यक्ति के नये माध्यम और तरीक़े तलाशिए। तीसरी, सियासी मतभेदों के बावजूद अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए व्यापक एकजुटता क़ायम कीजिए।

श्री वरदराजन के बाद उद्घाटन-सत्र के मुख्य अतिथि, प्रख्यात दलित-मार्क्सवादी चिंतक राव साहब कसबे ने सम्मेलन को संबोधित किया। श्रोताओं को लगभग मंत्रमुग्ध करते हुए अपनी लंबी तक़रीर में राव साहब कसबे ने कहा कि राजनीति और समाज की इतनी बदतर स्थिति हमने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखी, लेकिन यह तो होना ही था, बस हमें पता नहीं था। केवल बाबा साहब आंबेडकर को पता था कि यह होनेवाला है। उन्होंने ही कहा था कि हिंदुस्तान में ‘पुलिटिकल डिमोक्रेसी’ के बावजूद ‘कास्ट मेजॉरिटी’ ही होगी। हमने संस्कृति या धर्म की ताक़त के बारे में कभी सोचा ही नहीं। मार्क्सवादियों द्वारा धर्म और संस्कृति की ताक़त की उपेक्षा के पहलू पर विस्तार से बात करने के बाद श्री कसबे ने कहा कि मुझे आश्चर्य होता है जब लोग पूछते हैं कि आरएसएस आज़ादी की लड़ाई में क्यों नहीं शामिल था? यह प्रश्न ही नहीं बनता, क्योंकि आरएसएस भारत को सांस्कृतिक रूप से राष्ट्र मानता है जिस पर जो चाहे राज करे, बस चातुर्वर्ण्य को क़ायम रखे। वे राजनीतिक राष्ट्र चाहते ही नहीं। भारत को राष्ट्र बनाने का पहला काम गांधी ने किया। उन्होंने पुलिटिकल नेशन बनाने की घोषणा की थी। वह इसलिए कामयाब नहीं हुई कि कांग्रेस नेतृत्व के भीतर ही हिंदू महासभा थी। मैं मानता हूं कि राजनीतिक गांधी हमेशा हारता रहा और उसका महात्मा विजयी होता रहा।

श्री कसबे ने कहा कि बाबा साहेब ने 1936 में यह बात कही थी कि जब-जब पूंजीवाद हारने लगता है, वह ब्राह्मणवाद को आगे कर देता है। अंत में उन्होंने सम्मेलन से युवाओं को आगे लाने का आह्वान करते हुए कहा कि जब वह एक हाथ में कम्युनिस्ट मैनीफ़ेस्टो और दूसरे में बाबा साहब की किताब लेकर आगे बढ़ेगा, तभी क्रांति होगी। आज का समय लेखकों से अपनी भूमिका निभाने का आह्वान कर रहा है। जो भूमिका अदा नहीं करेगा, वह लेखक नहीं है।

उद्घाटन सत्र में इन दो व्याख्यानों से पहले सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष डॉ. पूर्णेंदु शेखर का स्वागत वक्तव्य भी हुआ और इन व्याख्यानों के बाद प्रलेस तथा जसम के प्रतिनिधियों ने इन बिरादराना संगठनों के महासचिवों – क्रमशः राजेंद्र राजन और मनोज सिंह – के संदेश पढ़कर सुनाये। उद्घाटन सत्र और उसके बाद हुए विचार सत्र के अध्यक्ष-मंडल में सर्वश्री डॉ. चंचल चौहान, डॉ. अली इमाम ख़ान, प्रो. चंद्रकला पांडेय और डॉ. मृणाल शामिल थे। धन्यवाद ज्ञापन झारखंड जलेस के उप-सचिव सत्येंद्र कुमार ने किया।

भोजनोपरांत शुरू हुए विचार सत्र का विषय था, ‘संस्कृति का रणक्षेत्रः चुनौतियां और संघर्ष’। इस सत्र का संचालन प्रख्यात कवि राजेश जोशी ने किया। वक्ताओं में महादेव टोप्पो, सुधन्वा देशपांडे, प्रो. सुभद्रा चानना, सुहैल हाशमी और सुभाषिणी अली शामिल थे। महादेव टोप्पो ने राव साहब कसबे के भाषण का हवाला देते हुए कहा कि आज के क्रांतिकारी के एक हाथ में कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो और दूसरे में आंबेडकर की एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट  तो होनी ही चाहिए, साथ में प्रकृति को बचाने का संकल्प भी होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज पूंजीवाद के निशाने पर जल, जंगल और ज़मीन है। हमारा दायित्व है कि हम तीनों को बचाने का प्रयास करें। अपनी कविता ‘अच्छी चाय के इंतज़ार में’ के पाठ के साथ उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया।

सुधन्वा देशपांडे ने जननाट्य मंच और जलेस के गहरे संबंधों का हवाला देते हुए अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि जनम का पहला नुक्कड़ नाटक जनवादी विचार मंच की कांफ्रेंस में 1978 में हुआ था। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आज का दौर अंधेरे का दौर है जिसमें संस्कृतिकर्मियों की एकजुटता ज़रूरी है। अपने लेखन को लोकधर्मी बनाकर ही आज सार्थक भूमिका अदा की जा सकती है। हम उस जनता के लिए कला की रचना करें जो संघर्ष में शामिल हो रही है। जो कलात्मक अभिव्यक्तियों को लेकर हंगामा करते हैं, वे जाहिल हैं। उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि कौन-सी कला उनके विचारों के अनुकूल है और कौन ख़िलाफ़। समझते तो पद्मावत को लेकर हंगामा न करते, बजरंगी भाईजान जैसी फ़िल्म को लेकर हंगामा करते जो बड़े हल्के-फुल्के तरीक़े से पाकिस्तान के बारे में उनकी राय को सबवर्ट करती है। सुधन्वा ने यह भी कहा कि यह ऐसा समय है जब लोग वामपंथ के साथ संवाद करने को तैयार हैं। इसलिए यह हमारे विस्तार का समय भी है।

प्रो. सुभद्रा चानना ने आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति और उनके भयावह उत्पीड़न पर अपनी बात केंद्रित की। उन्होंने यह भी कहा कि हम ‘कोलोनाइज़ेशन’ की बात बहुत करते हैं, पर उस ‘इंटरनल कोलोनाइज़ेशन’ को भूल जाते हैं जो इसी देश का एक वर्ग, एक तबक़ा दूसरे वर्ग और तबक़े पर थोपता है। आदिवासी संस्कृति के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने उसमें निहित बराबरी की भावना पर ज़ोर दिया।

सुहैल हाशमी ने सत्र के विषय के साथ थोड़ी असहमति दर्ज करते हुए कहा कि संस्कृति के क्षेत्र को रणक्षेत्र कहना ठीक नहीं लगता। यह विचारों के संघर्ष का क्षेत्र अवश्य है, पर लड़ाई की तरह इसे न देखें। उन्होंने कहा कि हमारा राष्ट्रीय विमर्श उत्तर भारतीय द्विज हिंदू पुरुष का विमर्श है। हमारा साहित्य भी पूरे समाज का विमर्श नहीं है। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील-जनवादी परंपरा में दलितों पर किसने कलम उठायी? सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ इसी परंपरा में 1947 के आसपास कितना साहित्य मिलता है? इन बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी परंपरा पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।

कॉमरेड सुभाषिणी अली ने कहा कि संस्कृति का क्षेत्र आज ही नहीं, हमेशा से एक रणक्षेत्र रहा है। यह रणक्षेत्र साम्राज्यवाद और पूंजीवाद से भी पहले का है। संविधान लिखे जाने से पहले समानता का सिद्धांत कभी लागू नहीं हुआ। जिस स्वर्णिम अतीत को हम सराहते हैं, उसका विश्लेषण अवश्य करें। क्या वह दलितों के लिए, स्त्रियों के लिए भी स्वर्णिम था? आज लैंगिक वर्चस्व ख़तरे में है, जातीय वर्चस्व ख़तरे में है। जो अलग-अलग वर्चस्व को ख़तरे में देख रहे हैं, वे उसकी रक्षा के लिए मोर्चे तैयार कर रहे हैं। संस्कृति का रणक्षेत्र सबसे पुराना है और ख़ून से लथपथ है। लेखकों ने इसमें ज़ोरदार हस्तक्षेप किया है। उन्होंने अवार्ड वापसी की मुहिम का ज़िक्र करते हुए लेखकों की भूमिका को रेखांकित किया।

इस सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए चंचल चौहान ने कहा कि संघर्ष तब से चल रहा है जबसे वर्ग बने हैं। उन्होंने तमाम प्राचीन संदर्भों का उल्लेख करते हुए असमानता की परंपरा को चिह्नित किया और मिथकों की व्याख्या भी इसी संदर्भ में की।

इस सत्र में धन्यवाद ज्ञापन जलेस के धनबाद जिला सचिव अशोक कुमार ने किया।

पहले दिन के इन दोनों सत्रों के बाद नये घोषणापत्र के मसौदे पर चर्चा को स्थगित कर छत्तीसगढ़ की एक नाचा मंडली की नाट्य-प्रस्तुति के लिए समय निकाला गया जो हरिशंकर परसाई की कहानी पर आधारित थी। रात के भोजन के बाद कविता और कहानी पाठ के समानांतर सत्र आयोजित हुए।

अगले दिन, यानी 28 जनवरी को केंद्र की रिपोर्ट पेश करने के लिए सांगठनिक सत्र 11 बजे शुरू हो पाया। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के बुलावे पर उप-महासचिव संजीव कुमार ने रिपोर्ट का सार प्रतिनिधियों के सामने रखा। उसके बाद रिपोर्ट पर विचार-विमर्श के लिए सभी राज्य इकाइयों को एक घंटे का समय दिया गया। घंटे भर बाद हर राज्य के प्रतिनिधियों ने निर्धारित समय सीमा में अपनी बातें रखीं। संशोधन-परिवर्द्धन के लिए कई सुझाव आये और केंद्र की ओर से संजीव कुमार ने उन सुझावों को यथासंभव शामिल करते हुए रिपोर्ट को अंतिम रूप देने का वायदा किया।

भोजनोपरांत होने वाले सांगठनिक सत्र में चुनाव की प्रक्रिया संपन्न हुई। आम सभा ने सर्वसम्मति से केंद्रीय परिषद् की सदस्य-संख्या को 161 से बढ़ाकर 175 करने और उसी के भीतर से चुनी जानेवाली केंद्रीय कार्यकारिणी की सदस्य संख्या को 65 से बढ़ाकर 75 करने का प्रस्ताव पारित किया। इनके लिए राज्यों से आये डेलीगेटों के द्वारा चुने गये परिषद सदस्यों से बनायी गयी सूची सर्वसम्मति से पारित हुई। पदाधिकारियों के रूप में जिन लोगों का चुनाव हुआ, वे इस प्रकार हैं :

अध्यक्ष: असग़र वजाहत

कार्यकारी अध्यक्ष: चंचल चौहान

उपाघ्यक्ष: रमेश कुंतल मेघ, शेखर जोशी, इब्बार रब्बी, नमिता सिंह, चंद्रकला पांडेय, रामप्रकाश त्रिपाठी ।  तीन स्थान रिक्त रखे गये।

महासचिव: मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

संयुक्त महासचिव: राजेश जोशी, संजीव कुमार

सचिव: शुभा, मनमोहन, रेखा अवस्थी, अली इमाम ख़ान, नीरज सिंह, विनीताभ, मनोज कुलकर्णी, बली सिंह, बजरंग बिहारी, संजीव कौशल, सुधीर सिंह, संदीप मील

कोषाध्यक्ष: जवरी मल्ल पारख

सम्मेलन में हर दो सत्र के बीच धनबाद इप्टा की टीम ने जनवादी गीतों की प्रस्तुति से सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक माहौल बनाये रखा। इसी टीम ने शुरुआत में भी स्वागत गान प्रस्तुत किया था।

सम्मेलन में जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें प्रमुख हैं : उर्दू की हिफ़ाज़त व फ़रोग़ के लिए, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़, महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़, दलित व आदिवासियों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़, अल्पसंख्यकों पर किये जा रहे जुल्मों के प्रतिरोध में। अंत में पिछले सम्मेलन से अब तक दिवंगत हुए रचनाकारों व कलाकारों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया।

 

 


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