उर्दू लेखकों पर लादी गयी अपमानजनक शर्त

उर्दू लेखकों पर लादी गयी अपमानजनक शर्त वापस लो!

नयी दिल्ली : 22 मार्च : एक साल पहले लिए गए फ़ैसले के अनुसार नेशनल काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ उर्दू लैंग्वेज (NCPUL) ने थोक ख़रीद हेतु वित्तीय मदद के लिए आवेदन करनेवाले उर्दू लेखकों से जो घोषणा-फॉर्म भरवाना शुरू किया है, वह घोर आपत्तिजनक और निंदनीय है. एनसीपीयूएल मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली एक स्वायत्त संस्था है जिसका मुख्य काम उर्दू के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना है. इसके लिए यह साहित्यिक कृतियों की थोक ख़रीद भी करती है. यह प्रकाशन की सहूलियत के लिए मिलनेवाला एक तरह का वित्त-पोषण है जिसके लिए आवेदन करते हुए अब लेखकों को यह घोषणा करनी है कि उनकी किताब/जर्नल/पुस्तिका में, जो एनसीपीयूएल द्वारा थोक ख़रीद के लिए स्वीकृत हुई है, कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो भारत सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ हो, राष्ट्रीय हित के ख़िलाफ़ हो, या विभिन्न समुदायों के बीच असामंजस्य का कारण बन सकती हो. यह भी कहा गया है कि अगर वे अपनी शपथ पर क़ायम नहीं रहते तो काउंसिल उनके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई कर सकती है और उन्हें दी गयी वित्तीय मदद को वापस करने के लिए कह सकती है.

इस सम्बन्ध में तीन बातें गौर करने लायक हैं:

(1)   उर्दू के लेखकों को ऐसी घोषणा की शर्त से बाँधना इस बात की ओर साफ़ इशारा करता है कि मौजूदा केंद्र सरकार उर्दूभाषी समुदाय के प्रति किस तरह का संकीर्ण सोच रखती है. किसी और भारतीय भाषा में इस तरह की इमदाद के लिए, हमारी जानकारी के अनुसार, ऐसी शपथ नहीं लेनी पड़ती. इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए बने हुए निकाय भी ऐसी शर्तें लागू करें; इसका मतलब यह है कि उर्दू को, कुछ ख़ास तरह के पूर्वग्रहों के आधार पर, निशाने पर लिया जा रहा है.

(2)   लेखक के ऊपर यह शर्त लादना कि वह सरकारी नीतियों की आलोचना न करे, लोकतंत्र के बुनियादी उसूल के ख़िलाफ़ है. लेखकों के स्वतंत्र और निर्भीक विवेक ने हमेशा सरकारों को अपनी गिरेबाँ में झांकना सिखाया है और अवाम की आवाज़ और उसके पक्ष को सामने रखकर जम्हूरियत को मज़बूत बनाने का काम किया है.

(3)   भले ही इस फॉर्म में तीन चीज़ों को आपत्तिजनक ठहराया गया हो, सचाई यही है कि काउंसिल को एतराज़ मुख्यतः भारत सरकार की नीतियों की आलोचना पर है, क्योंकि कौन सी चीज़ ‘राष्ट्रीय हित के ख़िलाफ़’ है या ‘विभिन्न समुदायों के बीच असामंजस्य का कारण’ बन सकती है, यह तय करने का प्राधिकार वैसे भी काउंसिल के पास नहीं है. उसे तय करना संविधान और भारतीय दंड संहिता की धाराओं के आलोक में फ़ैसला सुनानेवाली भारतीय न्यायिक प्रणाली का काम है. काउंसिल इन्हें भी शपथ का हिस्सा बनाकर एक तो सरकारी नीतियों की आलोचना को हतोत्साह करने की अपनी मंशा की ओर से हमारा ध्यान भटकाना चाहती है, और दूसरे, उर्दू के लेखकों के प्रति एक ऐसी संदेह-जनित सावधानी प्रदर्शित कर रही है जो निहायत अपमानजनक है.

उक्त फॉर्म में यह अपमानजनक शर्त भी है कि इस घोषणा पर दस्तख़त करते हुए गवाह के तौर पर दो लोगों के दस्तख़त भी लिए जाएँ.

जनवादी लेखक संघ ‘नेशनल काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ उर्दू लैंग्वेज’ के इस क़दम की कठोर शब्दों में निंदा करता है और इसे फ़ौरन वापस लेने की मांग करता है. एनसीपीयूएल की ओर से इसे लेकर अभी तक जो भी सफ़ाई दी गयी है, वह लीपापोती की कोशिशों से अधिक कुछ नहीं है.


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