यह बहुत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिवंगत जनकवि केदारनाथ अग्रवाल के बांदा स्थित घर को व्यावसायिक प्रयोजनों से ज़मींदोज़ करने की तैयारियां चल रही हैं. केदार बाबू ने जिस घर में जीवन के 70 साल गुज़ारे, जहां हिंदी के सभी प्रमुख साहित्यकारों का लगातार आना-जाना रहा, जिस घर में आज भी उस महान कवि का पुस्तकों-पत्रिकाओं का संचयन – बदतर हाल में ही सही – मौजूद है, उसे संरक्षित करने में उनके परिजनों की कोई दिलचस्पी नहीं है. बांदा से ख़बरें आ रही हैं कि उस ज़मीन की बिक्री का अनुबंध हो चुका है और मजदूर काम पर लगाए जा चुके हैं. यही नहीं, काम में कोई बाधा न आये, इसके लिए मौक़े पर असलहों के साथ बाहुबली मौजूद हैं. केदार बाबू के दिवंगत होने के इतने सालों बाद भी शासन-प्रशासन ने उनके स्मारक के रूप में इस स्थल को संरक्षित-विकसित करने में कोई रुचि नहीं दिखाई और आज बिल्डरों के हाथों इसके धूल-धूसरित होने की नौबत आ गयी है, यह सूचना स्तब्ध कर देने वाली है. बांदा में मौजूद साहित्य-सेवियों और प्रेमियों ने इसका उचित ही विरोध किया है और जिलाधिकारी से मिल कर मौक़े पर चल रहे काम को अविलम्ब रुकवाने की गुजारिश की है. जनवादी लेखक संघ की बांदा जिला इकाई, भाकपा की जिला इकाई और अधिवक्ता संघ के पदाधिकारियों/पूर्व-पदाधिकारियों द्वारा हस्ताक्षरित एक ज्ञापन में ‘जिलाधिकारी के माध्यम से सरकार से यह मांग’ की गयी है कि ‘हिंदी के इस असाधारण कवि के आवास को अध्ययन-उद्देश्यों के लिए सरकारी तौर पर संरक्षित करने की कृपा करें. सरकार इसे अधिग्रहित करके आवाश्यक उपाय करे. इस आशय का प्रस्ताव शासन को भेजा जाए और तब तक इस पर किसी भी प्रकार के निर्माण पर रोक लगाई जाए.’ यह बिलकुल दुरुस्त मांग है. जनवादी लेखक संघ उम्मीद करता है कि व्यापक हिन्दी समाज इस मांग के साथ खड़ा होगा और विभिन्न माध्यमों से इसे राज्य व केंद्र की सरकारों तक पहुंचाने का प्रयास करेगा. निश्चित रूप से, सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी बांदा में उपस्थित साहित्य-प्रेमियों के कन्धों पर है. वे अगर प्रशासन को समय रहते सक्रिय करने में सक्षम न हुए तो इस धरोहर के नष्ट होने में कोई संदेह नहीं रहेगा. खपरैल की छत वाले एक जर्जर मकान को यादगार के रूप में बचाना जितना भी श्रमसाध्य हो, उसे ढहाने के लिए कुछ घंटे ही काफी होंगे.
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)
संजीव कुमार (उप-महासचिव)
यह निदंनीय घटना है