अलविदा, साथी सलाम बिन रज़्ज़ाक़

नयी दिल्ली : 7 मई 2024 : उर्दू के नामचीन अफ़सानानिगार सलाम बिन रज़्ज़ाक़ साहब का इंतकाल प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन की एक बड़ी क्षति है। वे 83 वर्ष के थे। 70 की दहाई के बाद कहानी लिखने वालों में उनका मक़ाम सबसे नुमायां और लोकप्रिय रहा।

सलाम बिन रज़्ज़ाक़ का संबंध मुंबई, महाराष्ट्र से था। वे जितने मक़बूल उर्दू साहित्य में रहे, उतने ही शौक़ से उन्हें हिंदी में भी पढ़ा जाता रहा है। हिंदी की सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां लगातर प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने अपनी कहानियों में आम इंसानों के दुख दर्द को बयान किया। अपने आसपास की ग़रीब बस्तियों, उनकी मेहरूमियों और जीवन संघर्ष को कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी।

मुंबई में जनवादी लेखक संघ की गोष्ठियों में वे बड़े उत्साह के साथ भाग लेते रहे। कई वर्षों तक वे जलेस मुंबई के अध्यक्ष भी रहे। लेखन के साथ-साथ जन आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती थी। उनकी 22 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। कई किताबों का उन्होंने मराठी से उर्दू-हिंदी में अनुवाद भी किया। इनके अलावा बाल साहित्य भी उन्होंने खू़ब लिखा। कई पाठ्यपुस्तकों में उनकी लिखी रचनाएं शामिल हैं।

सलाम बिन रज़्ज़ाक़ साहब पिछले एक वर्ष से लगातर बीमार चल रहे थे। आज उनके न रहने की ख़बर आयी। जनवादी लेखक संघ उन्हें ख़िराजे-अक़ीदत पेश करता है।


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