रायपुर साहित्य-महोत्सव पर जलेस का बयान

12-14 दिसंबर 2014 को मुख्यमंत्री रमण सिंह के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने जिस साहित्य-महोत्सव का आयोजन किया, उसे जनवादी लेखक संघ असहमति का सम्मान करने के स्वांग और एक राजनीतिक छलावे के रूप में देखता है. जिस राज्य की सरकार सेना और पुलिस का इस्तेमाल कर विदेशी कॉर्पोरेट हितों की पूर्ति के लिए आदिवासियों का जघन्य दमन कर रही हो, जहां मानवाधिकारों की हालत बेहद चिंताजनक हो, जहां साधनहीन तबकों के प्रति सत्तासीनों की निंदनीय लापरवाही से अभी-अभी एक-के-बाद-एक मौतें हुई हों, उस राज्य का मुख्यमंत्री इवेंट-मैनेजमेंट की विशेषज्ञ जनसंपर्क-एजेंसिओं की मदद से आयोजित कराये गए भव्य साहित्योत्सव के द्वारा, वस्तुतः, बौद्धिक वर्ग के भीतर अपनी स्वीकृति और वैधता का वातावरण निर्मित करना चाहता है, साथ ही, लेखकों तथा जनवादी रुझान के बुद्धिजीवियों के बीच विभेद और बिखराव के अपने एजेंडे को पूरा करना चाहता है. कुछ जनवादी और वामपंथी लेखक अपने विवेक से उस साहित्योत्सव में शामिल होकर अपना स्वतंत्र और जनपक्षधर दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से व्यक्त कर पाए, इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि उक्त आयोजन भाजपा-आरएसएस का राजनीतिक प्रपंच और स्वांग नहीं था. भाजपा-आरएसएस ने राष्ट्रीय स्तर पर भी शिक्षा, संस्कृति, इतिहास-लेखन, मीडिया इत्यादि के भगवाकरण, साम्प्रदायिक आधारों पर जनता के ध्रुवीकरण और भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करने का असहिष्णु अभियान छेड़ रखा है. तमाम संस्थाओं में कट्टर संघियों की नियुक्ति की जा रही है जो लगातार आधुनिक भारतीय मनीषा की भर्त्सना करते हुए सामाजिक अन्याय पर आधारित व्यवस्थाओं और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की वकालत करने में मुब्तिला हैं. वही भाजपा लेखकों में यह भ्रान्ति फैलाना चाहती है कि वह असहमतियों का सम्मान करती है. भाजपाई सरकार के इस छल पर लेखक गंभीरता से विचार करेंगे, ऐसी हम आशा करते हैं.

 

हमारे लिए यह मानने का कोई कारण नहीं कि हिन्दी के प्रतिष्ठित रचनाकारों ने किसी लोभ में इस सरकारी निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. ज़्यादातर लेखकों को शायद यह जानकारी भी नहीं थी कि वे मुख्यमंत्री की अगुवाई वाले एक शुद्ध रूप से सरकारी आयोजन में शामिल होने जा रहे हैं. उन्हें यह अवश्य पता रहा होगा कि यह आयोजन राज्य-सरकार द्वारा वित्तपोषित होगा, पर वित्तपोषित तो तमाम तरह की अकादमियां और विश्वविद्यालय भी होते हैं! इसलिए यह मान लेना संगत नहीं होगा कि लेखकों ने भाजपा-आरएसएस के सामने समर्पण कर दिया. उन्होंने अपनी बात रखने में भी कोई समझौता नहीं किया, इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

 

लिहाज़ा, यह समय आयोजन में शिरकत करनेवालों की भर्त्सना का नहीं, बल्कि उनके साथ सार्थक संवाद क़ायम करने का, पी. आर. एजेंसिओं को ठेका देकर उत्सव आयोजित कराने के चलन और उसमें निहित मंशाओं पर विचार करने का, तथा (लेखकों द्वारा मंच का) इस्तेमाल करने और (खुद) इस्तेमाल हो जाने के द्वंद्व पर एक समझ बनाने का है. मुल्क की कॉर्पोरेट लूट, मानवाधिकारों के हनन और हिन्दुत्व के आक्रामक अभियान में जैसे-जैसे बढ़त और तेज़ी आयेगी, वैसे-वैसे वैधता और स्वीकृति का वातावरण बनानेवाले ऐसे आयोजनों के संख्या भी बढ़ेगी. हम लेखकों से उम्मीद करते हैं कि वे ऐसे आयोजनों के प्रति अधिक सतर्क दृष्टि का परिचय देंगे.

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
(महासचिव)

संजीव कुमार
(उप-महासचिव)


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